शनिवार, 10 दिसंबर 2016

कभी पाया नहीं

*Really Very Nice*
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जो चाहा
कभी पाया नहीं,

जो पाया
कभी सोचा नहीं,

जो सोचा
कभी मिला नहीं,

जो मिला
रास आया नहीं,

जो खोया
वो याद आता है,

पर जो पाया
संभाला जाता नहीं ,

क्यों
अजीब सी पहेली है ज़िन्दगी,

जिसको
कोई सुलझा पाता नहीं...

जीवन में
कभी समझौता करना पड़े
तो कोई बड़ी बात नहीं है,

क्योंकि,

झुकता वही है
जिसमें जान होती है,

अकड़ तो
मुरदे की पहचान होती है।

ज़िन्दगी जीने के
दो तरीके होते है!

पहला:
जो पसंद है
उसे हासिल करना सीख लो.!

दूसरा:
जो हासिल है
उसे पसंद करना सीख लो.!

जिंदगी जीना
आसान नहीं होता;

बिना संघर्ष
कोई महान नहीं होता.!

जिंदगी
बहुत कुछ सिखाती है;

कभी हंसती है
तो कभी रुलाती है;

पर जो हर हाल में खुश रहते हैं;

जिंदगी उनके आगे
सर झुकाती है।

चेहरे की हंसी से
हर गम चुराओ;

बहुत कुछ बोलो
पर कुछ ना छुपाओ;

खुद ना रूठो कभी
पर सबको मनाओ;

राज़ है ये जिंदगी का
बस जीते चले जाओ।

"गुजरी हुई जिंदगी
कभी याद न कर,

तकदीर मे जो लिखा है
उसकी फर्याद न कर...

जो होगा वो होकर रहेगा,

तु कल की फिकर मे
अपनी आज की हसी
बर्बाद न कर...

हंस मरते हुये भी गाता है
और मोर नाचते हुये भी
रोता है....

ये जिंदगी का फंडा है बॉस

दुखो वाली रात
निंद नही आती

और खुशी वाली रात
कौन सोता है...
         
ईश्वर का दिया
कभी अल्प नहीं होता;

जो टूट जाये
वो संकल्प नहीं होता;

हार को
लक्ष्य से दूर ही रखना;

क्योंकि जीत का
कोई विकल्प नहीं होता।
          
जिंदगी में दो चीज़ें
हमेशा टूटने के लिए ही होती हैं :

"सांस और साथ"

सांस टूटने से तो
इंसान 1 ही बार मरता है;

पर किसी का साथ टूटने से
इंसान पल-पल मरता है।
          
जीवन का
सबसे बड़ा अपराध -

किसी की आँख में आंसू
आपकी वजह से होना।

और जीवन की
सबसे बड़ी उपलब्धि -

किसी की आँख में आंसू
आपके लिए होना।
           
जिंदगी जीना
आसान नहीं होता;

बिना संघर्ष
कोई महान नहीं होता;

जब तक न पड़े
हथोड़े की चोट;

पत्थर भी
भगवान नहीं होता।
          
जरुरत के मुताबिक जिंदगी जिओ
ख्वाहिशों के मुताबिक नहीं।,

क्योंकि जरुरत तो
फकीरों की भी पूरी हो जाती है;

और ख्वाहिशें बादशाहों की भी
अधूरी रह जाती है।
         

मनुष्य सुबह से शाम तक
काम करके उतना नहीं थकता;

जितना क्रोध और चिंता से
एक क्षण में थक जाता है।
           
दुनिया में
कोई भी चीज़ अपने आपके लिए
नहीं बनी है।

जैसे: दरिया
खुद अपना पानी नहीं पीता।

पेड़ -
खुद अपना फल नहीं खाते।

सूरज -
अपने लिए हररात नहीं देता।

फूल -
अपनी खुशबु
अपने लिए नहीं बिखेरते।

मालूम है क्यों?

क्योंकि दूसरों के लिए ही
जीना ही असली जिंदगी है।
          
मांगो
तो अपने रब से मांगो;

जो दे तो रहमत
और न दे तो किस्मत;

लेकिन दुनिया से
हरगिज़ मत माँगना;

क्योंकि दे तो एहसान
और न दे तो शर्मिंदगी।
          
कभी भी
'कामयाबी' को दिमाग

और 'नकामी' को दिल में
जगह नहीं देनी चाहिए।

क्योंकि,

कामयाबी
दिमाग में घमंड
और नकामी दिल में
मायूसी पैदा करती है।
          
कौन देता है
उम्र भर का सहारा।,

लोग तो जनाज़े में भी
कंधे बदलते रहते हैं।
          
कोई व्यक्ति
कितना ही महान क्यों न हो,

आंखे मूंदकर
उसके पीछे न चलिए।

यदि ईश्वर की
ऐसी ही मंशा होती
तो वह हर प्राणी को
आंख,
नाक,
कान,
मुंह,
मस्तिष्क आदि क्यों देता?

अच्छा लगा तो
share जरुर करे !

Nice Lines

पानी से
तस्वीर कहा बनती है,

ख्वाबों से
तकदीर कहा बनती है,

किसी भी रिश्ते को
सच्चे दिल से निभाओ,

ये जिंदगी
फिर वापस कहा मिलती है,

कौन किस से
चाहकर दूर होता है,

हर कोई अपने हालातों से
मजबूर होता है,

हम तो
बस इतना जानते है,

हर रिश्ता "मोती"
और हर दोस्त
"कोहिनूर" होता है।

नैननि पिय मूरति बसै,

नैननि पिय मूरति बसै, तेहि रस रहै समाय
ये लच्छन सुनि प्रेम के, और न कछु सुहाय
और न कछु सुहाय, फिरै अपनौ मदमातौ
कुटुम्ब देह सों जाइ, टूटि सबहि बिधि नातौ
जहँ जहँ पिय की बात सुनै, खोजत तिन गैननि
छिन छिन प्रति ध्रुव लेत प्रेम जल भरि भरि नैननि
कहा कहौं गति प्रेम की, बढ़ी चाह की पीर
लोचन भूखे रुप के, भरि भरि ढारत नीर

पाब्लो नेरुदा की कविता "You start dying slowly" का हिन्दी अनुवाद......

नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता
"You start dying slowly" का हिन्दी अनुवाद......

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं ,
अगर आप करते नहीं कोई यात्रा ,
अगर आप पढ़ते नहीं कोई किताब ,
अगर आप सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ ,
अगर आप करते नहीं किसी की तारीफ़,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं .
जब आप मार डालते हैं अपना स्वाभिमान ,
जब आप नहीं करने देते मदद अपनी,
न करते हैं मदद दूसरों की,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं .
अगर आप बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के,
चलते हैं रोज़ उन्हीं रोज़ वाले रास्तों पे,
अगर आप नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार ,
अगर आप नहीं पहनते हैं अलग अलग रंग,
या आप नहीं बात करते उनसे जो हैं अजनबी अनजान,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं .
अगर आप नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को,
और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को ,
वे जिनसे नम होती हों आपकी आँखें ,
और करती हों तेज़ आपकी धड़कनों को ,

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं .
अगर आप नहीं बदल सकते हों अपनी ज़िन्दगी को
जब हों आप असंतुष्ट अपने काम  और परिणाम से,
अगर आप अनिश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हों निश्चित को ,
अगर आप नहीं करते हों पीछा किसी स्वप्न का ,
अगर आप नहीं देते हों इजाज़त खुद को
अपने जीवन में कम से कम एक बार
किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की ...

आप धीरे धीरे मरने लगते हैं...✍

महादेवी वर्मा* की सुंदर पंक्तिया

*महादेवी वर्मा* की सुंदर पंक्तियाँ

आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ..!

पर तनिक ठहरो..
*ड्योढी पर पड़े पायदान पर,*
*अपना अहं झाड़ आना..!*

मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
*अपनी नाराज़गी वहीँ उड़ेल आना..!*

तुलसी के क्यारे में,
*मन की चटकन चढ़ा आना..!*

*अपनी व्यस्ततायें,*बाहर खूंटी पर ही *टांग आना..!*

जूतों संग, *हर नकारात्मकता उतार आना..!*

बाहर किलोलते बच्चों से,
*थोड़ी शरारत माँग लाना..!*

वो गुलाब के गमले में,
*मुस्कान लगी है..*
*तोड़ कर पहन आना..!*

लाओ, *अपनी उलझनें मुझे थमा दो..*
तुम्हारी थकान पर, *मनुहारों का पँखा झुला दूँ..!*

*देखो, शाम बिछाई है मैंने,*

*सूरज क्षितिज पर बाँधा है,*

*लाली छिड़की है नभ पर..!*

*प्रेम और विश्वास की मद्धम  आंच पर,* चाय चढ़ाई है,

घूँट घूँट पीना..!
*सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना...*

मंगलवार, 29 नवंबर 2016

रिश्ते

""" रिश्ते """

बेहद नाजुक से होते हैं ----
ये रिश्ते , फूल अमलताश के
बस , थोड़ी सी प्रीत से भीग जाते हैं
रोम रोम तक -----
और छोटी सी ही बात से
टूट जाते हैं , चकनाचूर होकर ----
इसलिए जरा संभलना ----
और  रिश्तों को सम्भालना थोड़े प्यार से ,
रिश्तों में तकरार हो , पर मीठी हो ,
जिससे खिल उठें नवजीवन सा ,
बचना तानों भरे  शब्दों से ---
जो तोड़ देते हैं रिश्तों को
सुखी लकड़ी सा -----
हाँ बेहद नाजुक ये रिश्ते
फूल अमलताश के -----!!!!

फूलों से नित हँसना सीखो

फूलों से नित हँसना सीखो, भौंरों से नित गाना।
तरु की झुकी डालियों से नित, सीखो शीश झुकाना!

सीख हवा के झोकों से लो, हिलना, जगत हिलाना!
दूध और पानी से सीखो, मिलना और मिलाना!

सूरज की किरणों से सीखो, जगना और जगाना!
लता और पेड़ों से सीखो, सबको गले लगाना!

वर्षा की बूँदों से सीखो, सबसे प्रेम बढ़ाना!
मेहँदी से सीखो सब ही पर, अपना रंग चढ़ाना!

मछली से सीखो स्वदेश के लिए तड़पकर मरना!
पतझड़ के पेड़ों से सीखो, दुख में धीरज धरना!

पृथ्वी से सीखो प्राणी की सच्ची सेवा करना!
दीपक से सीखो, जितना हो सके अँधेरा हरना!

जलधारा से सीखो, आगे जीवन पथ पर बढ़ना!
और धुएँ से सीखो हरदम ऊँचे ही पर चढ़ना!

रविवार, 27 नवंबर 2016

दूर सब फासला

❤❤दिल की देहरी से ❤❤

कुछ स्पंदन

दूर सब फासला हो गया
मंजिल खुद रास्ता हो गया

रोज ए हश्र मिल ही गए
और वादा वफा हो गया

आंख से दिल में उतरा था
बाद में लापता हो गया

किस नजर से देखा उसने
आलमे मयफिशॉ हो गया

सूरते हाल से समझ ले
पूछना मत क्या हो गया

बाखुदा आज खुश है बहुत
वो जहाँ से रिहा हो गया

©©©©©©©© *रतन सिंह चंपावत कृत*

बुधवार, 23 नवंबर 2016

ब्राँडेड वूलन गारमेंट्स

न जाने क्यों महसूस नहीं होती वो गरमाहट,
इन ब्राँडेड वूलन गारमेंट्स में ,
जो होती थी
दिन- रात, उलटे -सीधे फन्दों से बुने हुए स्वेटर और शाल में.

आते हैं याद अक्सर
वो जाड़े की छुट्टियों में दोपहर के आँगन के सीन,
पिघलने को रखा नारियल का तेल,
पकने को रखा लाल मिर्ची का अचार.

कुछ मटर छीलती,
कुछ स्वेटर बुनती,
कुछ धूप खाती
और कुछ को कुछ भी काम नहीं,
भाभियाँ, दादियाँ, बुआ, चाचियाँ.

अब आता है समझ,
क्यों हँसा करती थी कुछ भाभियाँ ,
चुभा-चुभा कर सलाइयों की नोक इधर -उधर,
स्वेटर का नाप लेने के बहाने,

याद है धूप के साथ-साथ खटिया
और
भाभियों और चाचियों की अठखेलियाँ.

अब कहाँ हाथ तापने की गर्माहट,
वार्मर जो है.

अब कहाँ एक-एक गरम पानी की बाल्टी का इन्तज़ार,
इन्स्टेंट गीजर जो है.

अब कहाँ खजूर-मूंगफली-गजक का कॉम्बिनेशन,
रम विथ हॉट वॅाटर जो है.

सर्दियाँ तब भी थी
जो बेहद कठिनाइयों से कटती थीं,
सर्दियाँ आज भी हैं,
जो आसानी से गुजर जाती हैं.

फिर भी
वो ही जाड़े बहुत मिस करते हैं,
बहुत याद आते हैं.
                               -गुलज़ार

बच्चे सा

❤❤ दिल की देहरी से ❤❤

कुछ स्पंदन

चलो आज किसी बच्चे सा मचल कर देखें
फिर बातों ही बातों में बहल कर देखें
≠=================≠
ज़माने को बदलने में तो नाकाम रहे
अब क्यों ना आज खुद को बदल कर देखें
≠=================≠
कहते हैं लोग कि इश्क आग का दरिया है
आओ इस पर भी कुछ कदम चल कर देखें
≠=================≠
हर नफ़स एक नयी इन्तिहां होती है
इस ज़िंदगी के सांचों में ढल कर देखें
≠=================≠
परवानों के हक़ में यह हंगामा क्यों
श़ब भर कभी शम्मा की तरह जल कर देखें
≠=================≠
तारीकियों में  बेपनाह नूर सिमटा है
ज़िस्मों की हद से बाहर निकल कर देखे
©©©©©©©©©©©©©©©©©©
*रतनसिंह चंपावत कृत*

सोमवार, 21 नवंबर 2016

औरत का सफर

*औरत का सफर☺*
       मेरी कलम से.........
बाबुल का घर छोड़ कर पिया के घर आती है..

☺एक लड़की जब शादी कर औरत बन जाती है..

अपनों से नाता तोड़कर किसी गैर को अपनाती है..

☺अपनी ख्वाहिशों को जलाकर किसी और के सपने सजाती है..

☺सुबह सवेरे जागकर सबके लिए चाय बनाती है..

नहा धोकर फिर सबके लिए नाश्ता बनाती है..

☺पति को विदा कर बच्चों का टिफिन सजाती है..

झाडू पोछा निपटा कर कपड़ों पर जुट जाती है..

पता ही नही चलता कब सुबह से दोपहर हो जाती है..

☺फिर से सबका खाना बनाने किचन में जुट जाती है..

☺सास ससुर को खाना परोस स्कूल से बच्चों को लाती है..

बच्चों संग हंसते हंसते खाना खाती और खिलाती है..

☺फिर बच्चों को टयूशन छोड़,थैला थाम बाजार जाती है..

☺घर के अनगिनत काम कुछ देर में निपटाकर आती है..

पता ही नही चलता कब दोपहर से शाम हो जाती है..

सास ससुर की चाय बनाकर फिर से चौके में जुट जाती है..

☺खाना पीना निपटाकर फिर बर्तनों पर जुट जाती है..

सबको सुलाकर सुबह उठने को फिर से वो सो जाती है..

हैरान हूं दोस्तों ये देखकर सौलह घंटे ड्यूटी बजाती है..

फिर भी एक पैसे की पगार नही पाती है..

ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत का मजाक उडाती है..

ना जाने क्यूं दुनिया उस औरत पर चुटकुले बनाती है..

जो पत्नी मां बहन बेटी ना जाने कितने रिश्ते निभाती है..

सबके आंसू पोंछती है लेकिन खुद के आंसू छुपाती है..

*नमन है मेरा घर की उस लक्ष्मी को जो घर को स्वर्ग बनाती है..☺*

*☺ड़ोली में बैठकर आती है और अर्थी पर लेटकर जाती है. ......
निवेदन
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बस मुश्किलें बढ़ गई,

हम हैं वही बस मुश्किलें बढ़ गई,
मंजिल आने से पहले हालात बदल गई.

पहले चाहत और थी अब चाहत कुछ और है,
इस तरह ज़िन्दगी बेमकसद सी रह गई.

गुमनामी में थे तो ठीक थे हम,
नाम हुआ तो दिक्कतें भी बढ़ गई.

शर्म थी, हया थी, प्यार की रस्में भी थी,
अब इश्क़ केवल बर्बादी की वजह रह गई.

क्या करूँ फैसला असमंजस में हूँ,
ज़िन्दगी चुपके से कान में क्या कह गई !!

शाम गुलाबी रहे

❤❤ दिल की देहरी से ❤❤

  कुछ स्पंदन

शाम गुलाबी रहे सुबह श़ब़नमी रहे
देखना इंतजा़म में न कोई कमी रहे

य़काय़क सब विराने आबाद हो जाए
जो दिल में आकर मेरा दिलनशीं रहे

तलाश लूंगा खुद में खुद ही को एक दिन
कायम बस मुझ पर मेरा ही य़कीं रहे

विसाल ए सनम और नूर फजा़ओं में
ये लहू की रवानियां  आज थमी रहे 

हक़ मतलबी दुनिया का अदा करने दे
या रब ! फिर वही जो तेरी मरज़ी रहे

इतनी सी दुआ करो मेरे मेहरबां  !
यह दिल की चोट मेरे सदा हरी रहे

उसी का मशविरा देना ऐ जिंदगी
जो करना मेरे लिए लाज़िमी रहे

आबेहयात भी य़कीनन मिल जायेगा
गरचे सलामत अपनी तिश्ना लबी रहे

©© *रतन सिंह चंपावत कृत*©©©©©©

शनिवार, 19 नवंबर 2016

उजाला

मेरी गज़ल।

उजाला जब बसर करने लगा है।
सवेरा  भी  हंसी  लगने  लगा है।

उठा सैलाब  ऐसा मन के अंदर
उमंगो का सफर थमने लगा है।

बनाता घर निवाले छीन कर वो
निराले पाप अब  करने लगा है।

लुटेरा बन  सुखी होता  जमाना
निराले  से बहाने गढ़ने  लगा है।

जमाना को दिखा मत जख़्म दीपा
दिखाने  पर  जहाँ हँसने  लगा है।

दीपा परिहार

बुधवार, 16 नवंबर 2016

हज़ार-पाँच सौ के दोह

*हज़ार-पाँच सौ के दोहे:*

'छुट्टे' कहें 'हज़ार' से, काहे अकड़ दिखाय ।
क्या जाने कब फेंकना, रद्दी में पड़ जाय ।।

घरवाला क्या जान सके, घरवाली की पीर ।
रात रायता हो गई, दिन-दिन जोड़ी खीर ।।

रातों-रात बदल गयी, बस्ती की तस्वीर ।
साहब ठन-ठन हो गए, धनपति हुए फ़क़ीर ।।

सौ, हज़ार दोऊ पड़े, काको लियूँ उठाय ।
क़ीमत सौ के नोट की, मोदी दियो बताय ।।

लंबी लाइन में खड़े, कितनों के अरमान ।
सकल बैंक तीरथ हुए, एटीएम भगवान ।।

काले धन को रोकने, सभी लगाएँ ज़ोर ।
डाल-डाल कानून है, पात-पात पर चोर ।।

लाख टके के प्रश्न पर, हर कोई है मौन ।
दो हज़ार के नोट की, रिश्वत रोके कौन ?

थैलसीमिया-सा करे, काला धन व्यवहार ।
'ख़ून' बदलना है फ़क़त, अस्थायी उपचार ।।

मोदी जी सुन लीजिये, *पुरी* की अरदास ।
जल्दी नोट छपाइये, बचा न कुछ भी पास ।।

सोमवार, 14 नवंबर 2016

परिंदा

कुछ स्पंदन

कहने को तो वो परिंदा यह शज़र छोड़ गया
मगर हर शा़खो गुल पर अपना असर छोड़ गया

सरे शाम वह मेरी महफ़िल से रुख़सत हो गया
जाते जाते मुझ पर  कातिल नज़र छोड़ गया

सिवा खुद के सब को अपने  साथ लेकर जाऊंगा
तेरी दुनिया जो मैं  सचमुच अगर  छोड़ गया

खाली हाथ आया था खाली हाथ चला गया
जो कुछ लिया था यहीं से यहीं पर छोड़ गया

तिज़ारत ए इश्क में बराबरी का सौदा था
नूर ए च़श्म ले गया तो च़श्म ए त़र छोड़ गया

उस तिश्नालबी का भी क्या अज़ब सा आलम था
क़तरे की ख़ातिर  सारा समंदर छोड़ गया

रतन सिंह चंपावत कृत

सोमवार, 7 नवंबर 2016

वफ़ा

मेरी गज़ल।

इस  वफ़ा को सजा हो गई।
जिदंगी अब खफा  हो गई।

फेर ली सामने  से नजर
छोड़ दुनिया दफा हो गई।

पी रहा है  अकेला  वहॉ
मैं   यहॉ खुद  नशा हो गई।

चाहती  ना  किसी और को
खुद ही खुद पर फिदा हो गई

आ  गई पास  दीपा के जब
बददुआ  भी दुआ  हो गई।

ंंंंंंंदीपा परिहार ंंंंंं

तकदीर

*तकदीर :*

*एक   हसीन   लडकी*
*राजा  के  दरबार   में*
*डांस   कर  रही   थी...*

*( राजा   बहुत   बदसुरत   था )*

*लडकी   ने   राजा   से   एक*
*सवाल   की  इजाजत  मांगी*
.
*राजा   ने  कहा ,*
                     *' चलो  पुछो .'*
.
*लडकी   ने   कहा ,*
   *'जब    हुस्न   बंट   रहा   था*
      *तब   आप   कहां  थे..??*
.
*राजा   ने   गुस्सा   नही  किया*
*बल्कि*
*मुस्कुराते   हुवे   कहा*
  *~  जब   तुम   हुस्न   की*
       *लाइन्   में   खडी*
       *हुस्न    ले   रही   थी , ~*
.
*~    तो   में*
  *किस्मत  की   लाइन  में  खडा*
             *किस्मत  ले  रहा  था*
.
          *और   आज* 
     *तुझ  जैसी  हुस्न   वालीयां*
      *मेरी  गुलाम   की   तरह*
       *नाच   रही   है...........*
.
*इसलिए  शायर  खुब  कहते  है,*
.
    *" हुस्न   ना   मांग*
      *नसीब   मांग   ए   दोस्त ,*

       *हुस्न   वाले   तो*
      *अक्सर   नसीब   वालों  के*
      *गुलाम   हुआ   करते   है...*

      *" जो   भाग्य   में   है ,*
        *वह   भाग   कर  आएगा,*
    
         *जो   नहीं   है ,*
         *वह   आकर   भी*
         *भाग   जाएगा....!!!!!."*

*यहाँ   सब   कुछ   बिकता   है ,*
*दोस्तों  रहना  जरा  संभाल  के,*

*बेचने  वाले  हवा भी बेच देते है,*
      *गुब्बारों   में   डाल   के,*

        *सच   बिकता   है ,*
        *झूट   बिकता   है,*
       *बिकती   है   हर   कहानी,*

       *तीनों  लोक  में  फेला  है ,*
       *फिर   भी   बिकता   है*
       *बोतल  में  पानी ,*

*कभी फूलों की तरह मत जीना,*
*जिस   दिन  खिलोगे ,*
*टूट  कर  बिखर्र  जाओगे ,*
*जीना  है  तो*
*पत्थर   की   तरह   जियो ;*
*जिस   दिन   तराशे   गए ,*
*" भगवान " बन  जाओगे...!!!!*

यूं गुफ्तगू

❤❤ दिल की देहरी से..❤❤

कुछ स्पंदन

यूं गुफ्तगू करते रहे हम ही से हम
खुद से भी मिले बड़ी बेरुखी से हम

कदम अपने आसमां पर भी रखे मगर
ताउम्र जुड़े रहे इस सरज़मी से हम

सुकूने दिल को खुद ही तबाह कर लिया
आशना हुए हैं इक महज़बीं  से हम

बदलियां जाने किस झील में बरस गयी
तरसते रह गए सूखी नदी से हम

ज़ख्मों पर फिर से करो मरहम फ़रेब का
चोट खाकर लौेटे हैं राह ए य़कीं से हम

तेरी नसीहत हो तुझ ही को मुबारक
बाज कहां आएंगे गुस्ताखी से हम

मिले हैं ख़ाक में पर हरग़िज मिटे नहीं
बन के श़ज़र उगेंगे यहीं कहीं से हम

ज़िंदगी भर खुद की गुलामी करते रहे
ख़फ़ा बहुत है इन्सानी बुजदिली से हम.

रोज ए हश्र एक सवाल जरुर पूछेंगे
मिली जो ग़र वहां रसूल औ नबीं से हम

©©©©©©©©

रतन सिंह चाँपावत कृत

क्या  देना_

अंधों   को  दर्पण  क्या  देना_
_बहरों को भजन सुनाना क्या_
_जो  रक्त  पान  करते  उनको_
_गंगा  का  नीर  पिलाना  क्या.._

_हमने  जिनको दो आँखे दी_
_वो हमको आँख दिखा बैठे_
_हम  शांति  यज्ञ  में लगे रहे_
_वो   श्वेत  कबूतर  खा  बैठे.._

_वो छल पे छल करता आया_
_हम  अड़े  रहे  विश्वासों  पर_
_कितने  समझौते  थोप  दिए_
_हमने  बेटों   की   लाशों  पर.._

_अब लाशें भी यह बोल उठी_
_मत  अंतर्मन  पर  घात करो_
_दुश्मन जो भाषा समझ सके_
_अब  उस भाषा में बात करो.._

_वो  झाड़ी  है, हम  बरगद हैं_
_वो  है  बबूल  हम  चन्दन हैं_
_वो  है  जमात  गीदड़  वाली_
_हम सिंहों का अभिनन्दन हैं.._

_ऐ पाक  तुम्हारी धमकी से_
_यह  धरा  नहीं डरने वाली_
_यह अमर सनातन माटी है_
_ये  कभी  नहीं  मरने वाली.._

_तुम भूल गए सन् अड़तालिस_
_पैदा   होते   ही   अकड़े   थे_
_हम उन कबायली बकरों की_
_गर्दन   हाथों   से   पकड़े  थे.._

_तुम भूल गए सन् पैंसठ को_
_तुमने  पंगा  कर  डाला  था_
_छोटे  से   लाल  बहादुर  ने_
_तुमको  नंगा  कर डाला था.._

_तुम भूले सन्  इकहत्तर को_
_जब  तुम  ढाका पर ऐंठे थे_
_नब्बे   हजार   पाकिस्तानी_
_घुटनों  के  बल  पर  बैठे थे.._

_तुम भूल  गए करगिल का रण_
_हिमगिरि पर लिखी कहानी थी_
_इस्लामाबादी       गुंडों      को_
_जब   याद   दिलाई   नानी  थी.._

_तुम  सारी  दुर्गति भूल गए_
_फिर से बवाल कर बैठे हो_
_है  उत्तर खुद के पास नहीं_
_हमसे  सवाल  कर बैठे हो.._

_बिगड़ैल किसी बच्चे जैसे_
_आलाप  तुम्हारे  लगते  हैं_
_तुम  भूल  गए हो रिश्ते में_
_हम  बाप  तुम्हारे लगते हैं.._

_बेटा  पिटने  का  आदी है_
_बेटा   पक्का   जेहादी  है_
_शायद बेटे की किस्मत में_
_बर्बादी    ही   बर्बादी    है.._

_तेरी   बर्बादी  में  खुद को_
_बर्बाद    नहीं    होने   देंगे_
_हम भारत माँ के सीने पर_
_जेहाद   नहीं   होने    देंगे.._

_तू  रख हथियार उधारी के_
_हम अपने दम से लड़ लेंगे_
_गर एटम बम से लड़ना हो_
_तो  एटम  बम  से लड़ लेंगे.._

_जब  तक तू बटन दबायेगा_
_हम  पृथ्वी  नाग  चला  देंगे_
_तू  जब तक दिल्ली  ढूंढेगा_
_हम  पूरा  पाक  जला  देंगे.._

_यह कथन सारा आवाम कहे_
_गर फिर से आँख दिखाओगे_
_तुम सवा अरब के भारत की_
_मुट्ठी    से    मसले   जाओगे.._

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

दिया उम्मीद का..

जरा सलीके से बटोरना, बुझे दीयों को दोस्तों,

इन्होंने अमावस की अँधेरी रात में हमें रौशनी दी थी,

किसी और को जलाकर खुश होना अलग बात है,

इन्होंने तो खुद को जलाकर हमें खुशी दी थी.....

एक दिया उम्मीद का..

शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

उस रोज़ दिवाली होती है

जब मन में हो मौज बहारों की
चमकाएँ चमक सितारों की,
जब ख़ुशियों के शुभ घेरे हों
तन्हाई  में  भी  मेले  हों,
आनंद की आभा होती है
*उस रोज़ 'दिवाली' होती है ।*

       जब प्रेम के दीपक जलते हों
       सपने जब सच में बदलते हों,
       मन में हो मधुरता भावों की
       जब लहके फ़सलें चावों की,
       उत्साह की आभा होती है
       *उस रोज़ दिवाली होती है ।*

जब प्रेम से मीत बुलाते हों
दुश्मन भी गले लगाते हों,
जब कहींं किसी से वैर न हो
सब अपने हों, कोई ग़ैर न हो,
अपनत्व की आभा होती है
*उस रोज़ दिवाली होती है ।*

       जब तन-मन-जीवन सज जाएं
       सद्-भाव  के बाजे बज जाएं,
       महकाए ख़ुशबू ख़ुशियों की
      मुस्काएं चंदनिया सुधियों की,
      तृप्ति  की  आभा होती  है
      उस रोज़ 'दिवाली' होती है .        

बचपन


किसी ने *भींत से रगड़कर* छोड़ी तो किसी ने सड़क पर रख *चप्पल से रगड़कर* छोड़ी ,
'

किसी ने *भाटे से कूट कूट कर* छोड़ी ,
तो किसी ने *बन्दूक में डालकर* छोड़ी ......
किसी ने *नट बोल्ट* का प्रयोग किया तो किसी ने *दांतो से किचरकर* छोड़ी ।
'
और तो और कुछ कुचमादियों ने मेरा *नाखूनों से कत्ल किया* तो किसी ने मुझे *जलती आग में* डालकर माहौल बनाया ।

बचपन में अलग अलग भांत के लफंगों ने मेरा अलग अलग तरह से शोषण किया ।

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आज आप बड़े हो गए , मुझे भूल गए ..
लेकिन मुझे आप और आपका लपरा बचपन अच्छी तरह याद है ।

:---आपकी -- *टिकड़ी*

एक दिया ऐसा

" एक दिया ऐसा भी हो, जो भीतर तलक प्रकाश  करे  ,
एक दिया जीवन में फिर आकर क़ुछ  श्वास  भरे !
एक दिया सादा  हो इतना , जैसे सादा-सरल साधु  का जीवन ,
         एक दिया इतना  सुन्दर हो , जैसे देवों  का  उपवन  !
एक दिया भेद मिटाये  , क्या  तेरा -क्या मेरा  है  ,
         एक दिया  जो याद  दिलाये , हर रात  के बाद  सवेरा  है  !
एक दिया उनकी खातिर हो, जिनके घर में दिया नहीं ,
         एक दिया  उन बेचारों का जिनको घर ही दिया नहीं !
एक दिया सीमा के रक्षक , अपने भारत के  वीर जवानों  का ,
          एक दिया मानवता - रक्षक , चंद  बचे (मुट्ठी भर) इंसानों  का !
एक दिया विश्बास दे उनको , जिनकी हिम्मत टूट  गयी  ,
              एक दिया उस राह में भी हो , जो कल पीछे  छूट  गयी !
एक दिया जो अंधकार का , जड़  के साथ  विनाश  करे ,
           एक दिया  ऐसा  भी हो , जो भीतर तलक प्रकाश  करे ,"- - - -