मंगलवार, 12 अप्रैल 2022

मृत्यु


मृत्यु भी एक कविता हैं
जो सच पर न बोले वो मृत
जो अन्याय पर चुप रहें वो मृत
जो जीवन जीवन समझे वो मृत
मृत्यु भी एक कविता हैं
कविता हमेशा चाहती थी सूक्ष्म भाव
हर कोई
निकल न सका
जो निकल न सका वो मृत
जो बिक गया वो मृत
जो भावों का काला वो मृत
जो अपराधी से निकाला वो मृत
मृत्यु एक कविता है
जो हारा वो मृत
जो सहारा वो मृत
जो सहारा वो मृत
जो डरा और डराया वो मृत
मृत्यु एक कविता हैं
जीवन से परे
भावों से परे 
आसमान से परे
संसार से परे
जो चाहो जीवन
तो डरो नहीं
मरो नहीं
विचार अनगढ़ जब आते
ईश्वर कहता
क्योंकि
ऐसा जीवन भी मृत्यु
और
मृत्यु भी एक कविता हैं।

रविवार, 20 दिसंबर 2020

मधुकर

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नित सजल नेह की सरिता मे।
मृदु कुमुद नीड़ की कविता मे।
उस छंद बद्ध की ड़गर सुघड़।
मन सुमन सुवासित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

करुणा की केशर क्यारी मे।
अरुणिमा अधर फुलवारी मे।
उरतल की निश्छल गात महा।
हृद् मुकुर सुवासित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नयनों की शीतल छाया मे।
आंसु की गहनतम माया मे।
पलकों की निर्मल कुंज मृदुल।
नित नेह सुभाषित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नित-नित चरणों के पावन रज।
मुकलित,प्रमुदित,रक्तिम नीरज।
लालायित नयनन की आभा।
अश्रु सिंधु समाहित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

पुरखे कभी विदा नहीं होते हैं....

पुरखे कभी विदा नहीं होते हैं....

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं
संतति के कण कण में रचे होते हैं
 
मज्जा नाड़ी रक्त में प्रवाहित होते हैं
चेतना प्रज्ञा स्मृति में समाहित होते हैं

देहरी आँगन द्वार  दीवार में ढ़ले होते हैं
ऐनक कुर्सी मेज कलम सब में बसे होते हैं

तीज त्यौहार प्रथा परम्पराओं में होते हैं
भूल चूक होते ही तस्वीरों में प्रगट होते हैं

हौंसलों उम्मीदों और सहारों में भी छिपे होते हैं
विचारों क्रियाओं विरासतों में अवश्य ही होते हैं

बोल चाल भाषा शैली हाव भाव सबमें होते हैं
पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं 

ज्येष्ठ भगिनी के चेहरे के पीछे छिपी माँ  में उपस्थित होते हैं
ज्येष्ठ भ्राता के उत्तरदायित्वों में पिता ही विराजित होते हैं

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते.....

पुरखे आसमान से नीचे आते आशीर्वादों में होते हैं
पुरखे धरती से ऊपर जाती श्रद्धाओं में होते हैं......

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं... !! 

          सर्वपितृ अमावस्या
नमन उनको जिनसे हम हैं.......... 

हाथ भले ही छूट जाते हों......
लेकिन स्पर्श बना रहता है मन में....

सोमवार, 14 सितंबर 2020

नारी तुझे सलाम

स्त्रियाँ, 
कुछ भी बर्बाद
 नही होने देतीं।
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक।
कभी तुरपाई कर के।
कभी टाँका लगा के।
कभी धूप दिखा के।
कभी हवा झला के।
कभी छाँटकर।
कभी बीनकर।
कभी तोड़कर।
कभी जोड़कर।
देखा होगा ना ?
अपने ही घर में उन्हें
खाली डब्बे जोड़ते हुए। 
बची थैलियाँ मोड़ते हुए।
 बची रोटी शाम को खाते हुए।
दोपहर की थोड़ी सी सब्जी में तड़का लगाते हुए।
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए।
बचे हुए खाने से अपनी थाली सजाते हुए।
फ़टे हुए कपड़े हों।
टूटा हुआ बटन हो।
 पुराना अचार हो।
सीलन लगे बिस्किट,
चाहे पापड़ हों।
डिब्बे मे पुरानी दाल हो।
गला हुआ फल हो।
मुरझाई हुई सब्जी हो।
या फिर
तकलीफ़ देता " रिश्ता "
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक...
इसलिए ,
 आप अहमियत रखिये!
वो जिस दिन मुँह मोड़ेंगी
तुम ढूंढ नहीं पाओगे...।

मकान को घर बनाने वाली रिक्तता उनसे पूछो जिन घर मे नारी नहीं वो घर नहीं मकान कहे जाते हैं।

सभी नारियों के सम्मान में नतमस्तक

हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ....

हिन्दी दिवस के सुअवसर पर मेरी कविता "हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ" के कुछ अंश संक्षिप्त रूप में आपकी सेवा में प्रेषित है। आपसे सविनय निवेदन कि इस वैज्ञानिक भाषा को समृद्ध बनाने हेतु अपना यथा प्रयास करें। 


संस्कृत सुता,  देवनागरी की रचना
है गौरवमयी इतिहास मेरा। 
नन्दन,निराला,भारतेन्दु की जननी
है देववाणी में वास मेरा।।
आदि का रासो, भक्ति मध्य की।
मीरा की प्रीत में सिमटी हूँ।।
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ ।
हाँ!  मैं ही तो हिन्दी हूँ। 

भारतेन्दु, द्विवेदी कई युग मेरे
जागरण, क्रान्ति का शंखनाद मैं। 
शंकर, निराला,महादेवी,सुमित्रा के
सौन्दर्य चेतना का अनुराग मैं।। 
प्रयोग, प्रगति, छाया, स्वच्छन्दता
सभी युगों को सींचती हूँ। 
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ। 
हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ। 

अर्वाचीन का वसन लपेटे
हिन्द की पहचान हूँ। 
राष्ट्रभाषा तो मात्र पद सम
मैं खुद में एक जहान हूँ। 
चिन्तन,ओजस्वी नये शिल्पियों संग
अपना पथ मैं गढ़ती हूँ। 
हाँ!  मैं ही तो हिन्दी हूँ। 
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ

 
 
 बलवन्त नेगी
रा0प्रा0वि0 गर्जिया,  चौखुटिया
अल्मोड़ा।

गुरुवार, 25 जून 2020

बहुत कुछ गंवा दिया....

माँ बनाती थी रोटी 
पहली गाय की , 
आखरी कुत्ते की
एक बामणी दादी की 
एक मेथरानी बाई की
हर सुबह सांड आ जाता था
दरवाज़े पर गुड़ की डली के लिए
कबूतर का चुग्गा 
किड़ियो का आटा
ग्यारस, अमावस, पूर्णिमा का सीधा
डाकौत का तेल 
काली कुतिया के ब्याने पर तेल गुड़ का सीरा

सब कुछ निकल आता था
उस घर से , 
जिसमें विलासिता के नाम पर एक टेबल पंखा था...

आज सामानों  से भरे घर में 
कुछ भी नहीं निकलता 
सिवाय लड़ने की कर्कश आवाजों के.......
....
मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे...
चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे...
सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए....
छतों पर अब न सोते हैं
बात बतंगड अब न होते हैं..
आंगन में वृक्ष थे
सांझे सुख दुख थे...
दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था...
कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे...
इक साइकिल ही पास था
फिर भी मेल जोल था...
रिश्ते निभाते थे
रूठते-मनाते थे...
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था...
मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे...
अब शायद कुछ पा लिया है
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया 

मंगलवार, 29 मई 2018

धूप सिपाही

धूप सिपाही बन गई  , सूरज थानेदार !
गरम हवाएं बन गईं  , जुल्मी  साहूकार !!
:
शीतलता शरमा  रही , कर घूँघट की ओट !
मुरझाई सी छांव है , पड़ रही लू की चोट  !!
:
चढ़ी दुपहरी हो गया , कर्फ़्यू जैसा हाल !
घर भीतर सब बंद हैं , सूनी है चौपाल !!
:
लगता है जैसे हुए ,   सूरज जी नाराज़ !
आग बबूला हो रहे , गिरा  रहे  हैं गाज !!
:
तापमान यूँ बढ़ रहा , ज्यों जंगल की आग !
सूर्यदेव  गाने  लगे , फिर  से   दीपक  राग !!
:
कूलर हीटर सा लगे , पंखा उगले आग  !
कोयलिया कू-कू करे , उत अमवा के बाग़ !!
:
लिए बीजना हाथ में  , दादी  करे  बयार   !
कूलर और पंखा हुए , बिन बिजली बेकार !!
:
कूए ग़ायब हो गये ,   सूखे  पोखर - ताल !
पशु - पक्षी और आदमी , सभी हुए बेहाल !!
:
धरती व्याकुल हो रही , बढ़ती जाती प्यास !
दूर  अभी  आषाढ़  है , रहने  लगी  उदास  !!
:
सूरज भी औकात में , आयेगा  उस  रोज !
बरखा रानी आयगी , धरती पर जिस रोज !!
:
पेड़ लगाओ पानी बचाओ , कहता सब संसार !
ये देख  चेते नहीं ,तो इक दिन होगा बंटाधार !!!!

मंगलवार, 27 मार्च 2018

आरम्भ है प्रचंड

आरम्भ है प्रचंड,
बोले मस्तकों के झुण्ड,
आज जंग की घडी की तुम गुहार दो
आन, बान ,शान या की जान का हो दान,
आज एक धनुष के बाण पे उतार दो
मन करे सो प्राण दे जो,
मन करे सो प्राण ले जो,
वही तो एक सर्व शक्तिमान है
ईश की पुकार है, ये भागवत का सार है
की युद्ध ही तो वीर का प्रमाण है
कौरवों की भीड़ हो,
या पांडवो का नीड हो
जो लड़ सका है वो ही तो महान है
जीत की हवस नहीं
किसी पे कोई वश नहीं
क्या जिंदगी है ठोकरों पे मार दो
मौत अंत है नहीं तो मौत से भी क्यों डरे
ये जाके आसमानो में दहाड़ दो
आरम्भ है प्रचंड ….
हो दया का भाव या की शौर्य का चुनाव
या की हार का वो घाव तुम ये सोच लो
या की पूरे भाल पर जल रहे विजय का लाल
लाल ये गुलाल तुम ये सोच लो
रंग केसरी हो या मृदुंग केसरी हो
या की केसरी हो लाल तुम ये सोच लो
जिस कवि की कल्पना में जिंदगी हो प्रेम गीत
उस कवि को आज तुम नकार दो
भीगती नसों में आज, फूलती रगों में आज
आग की लपट का तुम बघार दो
आरम्भ है प्रचंड ….

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

मेरा सफ़र

मेरा सफ़र ही मुझसे रूठा है
मै मंज़िल की क्या आस करूँ ?
जब आज ही धोखे देता हो
कल पे कैसे विस्वास करूँ ?

जो तुझसे रूठा बैठा है वो सफ़र ना तेरा है राही
वो मंज़िल ना व हमसाया..हमसफ़र ना तेरा है राही
वो प्यारा सा बस लम्हा है .. जो तुझको बाँधे बैठा है
तू राह पकड़ ..तू देर ना कर ..वो डगर ना तेरा है राही

वो लम्हा जीवन राग मेरा
वो चेत  मेरी ,अनुराग मेरा
मै उसके प्रेम का हूँ प्यासा
सावन की अब क्या प्यास करूँ ?
मेरा सफ़र ही मुझसे रूठा है
मैं  मंज़िल की क्या आस करूँ ?

तुम प्यासे हो जिस सागर के
अब उसमे विष है भरा हुआ
तुम माली थे जिन बागों के
बंजर सारा वो धरा हुआ
उठ जाग ज़रा अब मोह ना कर ..ये नगर ना तेरा है राही
वो मंज़िल ना वो हमसाया..हमसफ़र ना तेरा है राही
वो प्यारा सा बस लम्हा है .. जो तुझको बाँधे बैठा है
तू राह पकड़ ..तू देर ना कर ..वो डगर ना तेरा है राही

सोमवार, 22 जनवरी 2018

वाह री जिंदगी

*वाह री जिंदगी*
""”"""""""""""""""'""""
* दौलत की भूख ऐसी लगी की कमाने निकल गए *
* ओर जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गए *
* बच्चो के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी *
* ओर जब फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गए *
        
वाह री जिंदगी*
""”"""""""""""""""'""""

* जिंदगी की आधी उम्र तक पैसा कमाया*
*पैसा कमाने में इस शरीर को खराब किया *
* बाकी आधी उम्र उसी पैसे को *
* शरीर ठीक करने में लगाया *
* ओर अंत मे क्या हुआ *
* ना शरीर बचा ना ही पैसा *

           *वाह री जिंदगी*
             ""”"""""""""""""""'""""
* शमशान के बाहर लिखा था *
* मंजिल तो तेरी ये ही थी *
* बस जिंदगी बित गई आते आते *
* क्या मिला तुझे इस दुनिया से *
* अपनो ने ही जला दिया तुझे जाते जाते *
            *वाह री जिंदगी*
              ""”""""""""

बेतहाशा है रफ्तार..

*गैरमुकम्मल सी है ये जिंदगी,
      *और वक्त की बेतहाशा है रफ्तार..

*रात इकाई,
*नींद दहाई
*ख्वाब सैंकडा,
*दर्द हजार....

*फिर भी जिँदगी मजेदार•••!!
       
     

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है .....

मयस्सर डोर से
फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के जीने से
दिसम्बर उतर रहा है |

कुछ चेहरे घटे , चंद यादे जुड़ी
गए वक़्त में, 
उम्र का पंछी नित दूर और दूर
उड़ रहा है |...

गुनगुनी धूप और ठिठुरी राते
जाड़ो की,
गुजरे लम्हों पर झिना झिना
पर्दा गिर रहा है।
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है

मिट्टी का जिस्म
एक दिन मिट्टी में मिलेगा ,
मिट्टी का पुतला
किस बात पर अकड़ रहा है |

जायका लिया नही
और फिसल रही जिन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त
बादल बन उड़ रहा है |

...फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

कहाँ पर बोलना

कहाँ पर बोलना है
और कहाँ पर बोल जाते हैं।
जहाँ खामोश रहना है
वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।

कटा जब शीश सैनिक का
तो हम खामोश रहते हैं।
कटा एक सीन पिक्चर का
तो सारे बोल जाते हैं।।

नयी नस्लों के ये बच्चे
जमाने भर की सुनते हैं।
मगर माँ बाप कुछ बोले
तो बच्चे बोल जाते हैं।।

बहुत ऊँची दुकानों में
कटाते जेब सब अपनी।
मगर मज़दूर माँगेगा
तो सिक्के बोल जाते हैं।।

अगर मखमल करे गलती
तो कोई कुछ नहीँ कहता।
फटी चादर की गलती हो
तो सारे बोल जाते हैं।।

हवाओं की तबाही को
सभी चुपचाप सहते हैं।
च़रागों से हुई गलती
तो सारे बोल जाते हैं।।

बनाते फिरते हैं रिश्ते
जमाने भर से अक्सर।
मगर जब घर में हो जरूरत
तो रिश्ते भूल जाते हैं।।

कहाँ पर बोलना है
और कहाँ पर बोल जाते हैं।
जहाँ खामोश रहना है
वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

समय की .. इस अनवरत बहती धारा में ..

समय की ..
इस अनवरत बहती धारा में ..
अपने चंद सालों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!

जिंदगी ने ..
दिया है जब इतना ..
बेशुमार यहाँ ..
तो फिर ..
जो नहीं मिला उसका
हिसाब क्या रखें .. !!

दोस्तों ने .. दिया है ..
इतना प्यार यहाँ ..
तो दुश्मनी ..
की बातों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!

दिन हैं .. उजालों से ..
इतने भरपूर यहाँ ..
तो रात के अँधेरों का ..
हिसाब क्या रखे .. !!

खुशी के दो पल ..
काफी हैं .. खिलने के लिये ..
तो फिर .. उदासियों का ..
हिसाब क्या रखें .. !!

हसीन यादों के मंजर ..
इतने हैं जिंदगानी में ..
तो चंद दुख की बातों का .. हिसाब क्या रखें .. !!

मिले हैं फूल यहाँ ..
इतने किन्हीं अपनों से ..
फिर काँटों की .. चुभन का हिसाब क्या रखें .. !!

चाँद की चाँदनी ..
जब इतनी दिलकश है ..
तो उसमें भी दाग है ..
ये हिसाब क्या रखें .. !!

जब खयालों से .. ही पुलक ..
भर जाती हो दिल में ..
तो फिर मिलने .. ना मिलने का .. हिसाब क्या रखें .. !!

कुछ तो जरूर .. बहुत अच्छा है .. सभी में यारों ..
फिर जरा सी .. बुराइयों का .. हिसाब क्या रखें .. !!!

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

उतावला सा चांद .

❤  दिल की देहरी से ..❤
.. कुछ स्पन्दन ..

बेताब ....
उतावला सा चांद .
कल रात ..
फिर से गिर पड़ा अचानक....
यादों की गहरी झील में
शुक्र है कि वक्त पर दिख गया
वह मुझको ...
फिर .....
फिर ..    क्या ....
बड़ी मशक्कत से निकाला उसको
बाहर....  
भीग गया था वह   
पूरा का पूरा  ..
किसी अनकहे एहसास की नाजुक सी  नमी से  ...
उफ़्फ !!!!!!! .
कितना तो खामोश था ..
रात में पसरे सन्नाटे से भी ज्यादा

खैर ......

टांग दिया है मैंने उसे फिर से     दिल के खुले चंदोवे पर   
सूखने को  .... 
सवेरे सवेरे     
हसरतों की कुनकुनी धूप में..

मगर ......  
मगर पता ही नहीं चला
मुझे कि कब .
इस जद्दोजहद में ...
भीग गया हूं ....
मैं खुद भी ....
बाहर से    ..
खुद के अंदर तक !!!
तरबतर हो गया हूँ ...
पूरे वजूद से .. !!!
पशोपेश में हूं  
कि कहां टांगूं       ...
अब मैं ..

खुद  ही को सूखने के लिए...

तलाशूं कौन सी धूप  ...
जो सुखा दे ...
!
!!
!!
!!!!

अंदर तक.......

©©©©©©©
*CHAMPAWAT* *RATAN SINGH*

उतावला सा चांद .

❤  दिल की देहरी से ..❤
.. कुछ स्पन्दन ..

बेताब ....
उतावला सा चांद .
कल रात ..
फिर से गिर पड़ा अचानक....
यादों की गहरी झील में
शुक्र है कि वक्त पर दिख गया
वह मुझको ...
फिर .....
फिर ..    क्या ....
बड़ी मशक्कत से निकाला उसको
बाहर....  
भीग गया था वह   
पूरा का पूरा  ..
किसी अनकहे एहसास की नाजुक सी  नमी से  ...
उफ़्फ !!!!!!! .
कितना तो खामोश था ..
रात में पसरे सन्नाटे से भी ज्यादा

खैर ......

टांग दिया है मैंने उसे फिर से     दिल के खुले चंदोवे पर   
सूखने को  .... 
सवेरे सवेरे     
हसरतों की कुनकुनी धूप में..

मगर ......  
मगर पता ही नहीं चला
मुझे कि कब .
इस जद्दोजहद में ...
भीग गया हूं ....
मैं खुद भी ....
बाहर से    ..
खुद के अंदर तक !!!
तरबतर हो गया हूँ ...
पूरे वजूद से .. !!!
पशोपेश में हूं  
कि कहां टांगूं       ...
अब मैं ..

खुद  ही को सूखने के लिए...

तलाशूं कौन सी धूप  ...
जो सुखा दे ...
!
!!
!!
!!!!

अंदर तक.......

©©©©©©©
*CHAMPAWAT* *RATAN SINGH*

मंगलवार, 26 सितंबर 2017

उम्र की एेसी की तैसी...

उम्र की एेसी की तैसी... !

घर चाहे कैसा भी हो..
उसके एक कोने में..
खुलकर हंसने की जगह रखना..

सूरज कितना भी दूर हो..
उसको घर आने का रास्ता देना..

कभी कभी छत पर चढ़कर..
तारे अवश्य गिनना..
हो सके तो हाथ बढ़ा कर..
चाँद को छूने की कोशिश करना .

अगर हो लोगों से मिलना जुलना..
तो घर के पास पड़ोस ज़रूर रखना..

भीगने देना बारिश में..
उछल कूद भी करने देना..
हो सके तो बच्चों को..
एक कागज़ की किश्ती चलाने देना..

कभी हो फुरसत,आसमान भी साफ हो..
तो एक पतंग आसमान में चढ़ाना..
हो सके तो एक छोटा सा पेंच भी लड़ाना..

घर के सामने रखना एक पेड़..
उस पर बैठे पक्षियों की बातें अवश्य  सुनना..

घर चाहे कैसा भी हो..
घर के एक कोने में..
खुलकर हँसने की जगह रखना.

चाहे जिधर से गुज़रिये
मीठी सी हलचल मचा दिजिये,

उम्र का हरेक दौर मज़ेदार है
अपनी उम्र का मज़ा लिजिये.

ज़िंदा दिल रहिए जनाब,
ये चेहरे पे उदासी कैसी
वक्त तो बीत ही रहा है,
*उम्र की एेसी की तैसी.. !*

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

रंग रूड़ौ रजथान

रंग रूड़ौ रजथान .

सती जती अर सुरमा सतधारण सुजान
मुधरी बोली मोवणी रंग रूड़ो रजथान

आडावल ऊभौ अडिग अड़ ऊंचो असमान
कोटि-कोटि कीरत कथन रंग रूड़ो रजथान

माही जाखम मानसी सिरे चंबल शान
नवल नीर नित नरमदा रंग रूड़ो रजथान

लाखीणी लूणी ललक जगत गंग जिमि जान
बहै बनास बड़भागिणी रंग  रूड़ोै रजथान

भलौ भरीजै भाखड़ा बिसलपुर बलवान
सरवर तरवर सौवणा रंग  रूड़ो रजथान

मकराणा रो मारबल राजसमद रसवान
जोधाणै छीतर जबर रंग रूड़ो  रजथान

खैर कैर अर खेजड़ा बोरां करूं बखान
पीलू ढालू पाँगरै रंग रूड़ो  रजथान

चंग भपंग कमायचा ताल मजीरा तान
मोरचंग मनभावणी रंग रूड़ो  रजथान

भाटै भाटै भोमिया थळवट्ट थपिया थान ़
जग चावा झूंझार जी रंग रूड़ौ रजथान

सदा सवाया सौवणा करी ऊँट कैकांण
गाय दुवाड़ै गौरकी  रंग रूड़ौ रजथान

चिड़ी कमेड़ी आ चुगै धरमादै रो धान
मोेर पपीहा मोकळा रंग रूड़ौ रजथान

पैरण धोती पागड़ी अँगरखी अचकान
मौत्यां मूंघी मोजड़ी  रंग रूड़ौ रजथान

महल अटारी माळिया छायां छप्पर छान
पड़वां पाळी प्रीतड़ी  रंग रूड़ौ रजथान

तेज धार तलवार है मखमल रो है म्यान
भाला ढालां भळकतां  रंग रूड़ौ रजथान

आखै भारत आखतां नर निपजै निरवाण
ठावी अर चावी ठसक  रंग रूड़ौ रजथान

@©© रतन सिंह चाँपावत रणसी गांव कृत

ऐ उम्र !

*ऐ उम्र !*
*कुछ कहा मैंने,*
*पर शायद तूने सुना नहीँ..!*
*तू छीन सकती है बचपन मेरा,*
*पर बचपना नहीं..!!*

*हर बात का कोई जवाब नही होता...,*
*हर इश्क का नाम खराब नही होता...!*
*यूं तो झूम लेते है नशे में पीनेवाले....,*
*मगर हर नशे का नाम शराब नही होता...!*

*खामोश चेहरे पर हजारों पहरे होते है....!*
*हंसती आखों में भी जख्म गहरे होते है....!*
*जिनसे अक्सर रुठ जाते है हम,*
*असल में उनसे ही रिश्ते गहरे होते है....!*

*किसी ने खुदा से दुआ मांगी.!*
*दुआ में अपनी मौत मांगी,*
*खुदा ने कहा, मौत तो तुझे दे दु मगर...!*
*उसे क्या कहु जिसने तेरी जिंदगी मांगी...!*

*हर इंन्सान का दिल बुरा नही होता....!*
*हर एक इन्सान बुरा नही होता.*
*बुझ जाते है दीये कभी तेल की कमी से....!*
*हर बार कुसुर हवा का नही होता.. !!*

शनिवार, 26 अगस्त 2017

सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत

कितना रूप राग रंग
कुसुमित जीवन उमंग!
अर्ध्य सभ्य भी जग में
मिलती है प्रति पग में!

श्री गणपति का उत्सव,
नारी नर का मधुरव!
श्रद्धा विश्वास का
आशा उल्लास का
दृश्य एक अभिनव!
युवक नव युवती सुघर
नयनों से रहे निखर
हाव भाव सुरुचि चाव
स्वाभिमान अपनाव
संयम संभ्रम के कर!
कुसमय! विप्लव का डर!
आवे यदि जो अवसर
तो कोई हो तत्पर
कह सकेगा वचन प्रीत,
‘मारो मत मृत्यु भीत,
पशु हैं रहते लड़कर!
मानव जीवन पुनीत,
मृत्यु नहीं हार जीत,
रहना सब को भू पर!’
कह सकेगा साहस भर
देह का नहीं यह रण,
मन का यह संघर्षण!
‘आओ, स्थितियों से लड़ें
साथ साथ आगे बढ़ें
भेद मिटेंगे निश्वय
एक्य की होगी जय!
‘जीवन का यह विकास,
आ रहे मनुज पास!
उठता उर से रव है,–
एक हम मानव हैं
भिन्न हम दानव हैं!’

               Aj

तकदीर फूलों सी

❤  दिल की देहरी से ..❤
.. कुछ स्पन्दन ..

खरे को मैं खरा कहता रहूंगा
मिले जो भी सजा सहता रहूंगा

जमाना चाहे टुकड़े लाख कर दें
मगर मैं जितना था उतना रहूंगा

चला हूं हवा को थामने अब
पता है ख़ाक सा बिखरा रहूंगा

मेरी तकदीर फूलों सी लिखी है
मैं सड़ते  जिस्मों पर सजता रहूंगा

फकत दरिया हूँ इक अदना-सा मैं तो
किनारे तोड़ कर बहता रहूंगा

उजालों की गरज मुझको नहीं है
अंधेरे सायों से लिपटा रहूंगा

©©©©©©©
*CHAMPAWAT*

शनिवार, 29 जुलाई 2017

मानव / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!

रचनाकाल: अप्रैल’१९३५

~ मानव / सुमित्रानंदन पंत

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

युवक

युवक ही रणचंडी के ललाट की रेखा है|
युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभी का तुमुल निनाद है|
युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दंड है|
वह महासागर की उत्ताल तरंगों के समान उद्दंड है|
वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार से समान विकराल है,
प्रथम मिलन के स्फीत चुम्बन की तरह सरस है,
रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है
प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है| अगर किसी विशाल ह्रदय की आवश्यकता हो,तो युवकों के ह्रदय टटोलो |
अगर किसी आत्मत्यागी वीर की छह हो तो युवकों से मांगो |
रसिकता उसी के बांटे पड़ी है|
भावुकता पर उसी का सिक्का है|
वह छंद-शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है|
कवि भी उसी के ह्रुदयारविंद का मधुप है |
वह रसों की परिभाषा नहीं जानता,पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है |
सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक |
ईश्वरीय रचना कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक |
संध्या समय वह नदी के तट पर घंटों बैठा रहता है|
क्षितिज की ओर बढ़ते जाने वाले रक्त-राशि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता जाता है | विचित्र है उसका जीवन|
अद्भुत है उसका साहस|अमोघ है उसका उत्साह|
वह निश्चिन्त है,असावधान है|
लगन लग गयी,तो रात-भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है,जेठ की दुपहरी चैतकी चांदनी है,सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है,श्मशान की निस्ताभ्द्ता,उद्यान का विहंग-कल-कूजन है|
वह इच्छा करे तो समाज और जाती को उद्बुद्ध कर दे,देश की लाली रख ले,राष्ट्र का मुखोज्जल कर दे,बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले|
पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में है |
वह इस विशाल विश्वरंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है|

सोमवार, 24 जुलाई 2017

नुमाइश

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं
चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता हैं

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता हैं

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं  मगर दिल अक्सर
नाम सुनता हैं  तुम्हारा तो उछल पड़ता हैं

उसकी याद आई हैं  साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता हैं

रविवार, 16 जुलाई 2017

बाह रे टमाटर

बाह रे टमाटर
               दोहा
मारा मारा जो फिरा,  गलियों में बेहाल।
वही टमाटर हो गया, देखो मालामाल ।।
-
सड़कों पर फैंका गया ,जैसे कोई अनाथ ।
नहीं टमाटर आ रहा ,आज किसी  के हाॅथ ।।
-
भाव टमाटर का हुआ ,अब अस्सी के पार ।
अच्छे अच्छे देखकर,टपका रहे हैं लार ।।
-
विना टमाटर के नहीं,अच्छी लगे सलाद  ।
भोजन का बेकार सब ,विना टमाटर स्वाद ।।
-
विना टमाटर के लगे ,घर का फ्रिज बेकार ।
जैसे साली के विना ,लगती है ससुरार ।।
-
एक टमाटर सूॅघ कर ,दिल भर लेते आज ।
विना टमाटर रो रही ,फुसक फुसक कर प्याज ।।
-
जब सड़ते थे टमाटर ,तब ना समझा मोल ।
आज टमाटर हो गया ,साब किचिन से गोल ।।

-
आनंदित हों आप सब ,देख टमाटर लाल ।
विना टमाटर खाईये ,अब अरहर की दाल ।।

बारिश पड़े तो भागिए नहीं....

बारिश पड़े तो भागिए नहीं....... छत नहीं खोजिये........ छाते कभी-कभार बंद रखिये...... किस बात का डर है......? भीग जायेंगे न...........?

तो क्या हुआ...... पिघलेंगे नहीं.. ....फिर से सूख जायेंगे.. ....

तेजाब नहीं बरस रहा है........

आपकी 799 वाली टी-शर्ट भी सूख जायेगी.... ब्रांड भी उसका Levis से Lebis नहीं हो जायेगा..... ...

मोबाइल पालीथिन में कस के रख लीजिये.....

सड़क साफ़ है.. .....कोई नहीं आएगा.......

उस स्ट्रीट लैम्प की पीली रौशनी में डिस्को करती बूंदों को देखिये..........

थोड़ा धीरे चलिए.......
जल्दी पहुंच के भी क्या बदल जाना है......

बारिश बदलाव है....... मौसम का.... मन का..... कल्पनाओं का....... और लाइफ के गियर का...... दिमाग से दिल की तरफ........

सब धुल रहा है........ प्रकृति सब कुछ धो रही है.. ........आप क्यूँ उसी मनहूसियत की चीकट लपेटे घूम रहे हैं.........

याद कीजिये...........

वो कागज़ की नाव, काँलेज/कोचिंग  में भीगे सिर आए वो लड़की, लड़के, बारिश में जबरदस्ती नाचने को खींच कर ले गये दोस्त........

सब चलते-चलते याद कीजिये.........

दुहराना आसान नहीं होता........ दुहराना चाहिए भी नहीं........ लेकिन सहेजा तो जा ही सकता है.......... ताकि ऐसी किसी बारिश में चलते-चलते सोच के मुस्कुराया भी जा सके.........

ज़ुकाम से मत डरिये.........दवा से सही हो जायेगा.........

बारिश से डरेंगे तो फिर ज़ुकाम आपका महंगा वाला शावर भी ठीक नहीं कर पायेगा.........

और वैसे भी........ मैंने शावर में सिर्फ लोगों को रोते सुना है......... मुस्कुराते नहीं........क्योंकि  उनका गाना भी रोने से कम नहीं होता है..........

बारिश आई है........... थोड़ा चल लीजिये..........थोड़ा भीग लीजिये...........खुद से मिल लीजिये.........थोड़ा मुस्कुरा भी लीजिये.......

क्योंकि बारिश चन्द दिनों के लिये आई है.......
जैसे सावन में बिटिया घर आई हो.........

चली जायेगी वापस............फिर न रोइयेगा कि अब कब आयेगी..........

बारिश हो रही है...........उसके सहारे कुछ पल अपने लिये भी जी लेने की कोशिश कर लीजिये.......

मानसून की हार्दिक बधाई...☔☔

क़ुदरत मुझको जब तन्हाई देती है,

क़ुदरत मुझको जब तन्हाई देती है,
झरनों की आवाज़ सुनाई देती है.

अपने बदन को छूता हूँ तो क्यूँ मुझको ,
कपडे पहने हवा दिखाई देती है.

आगे-पीछे दौड़ रहे हैं नदियों के,
प्यास हमें कैसी रुसवाई देती है.

सफ़र बड़ा आसान हमारा हो जाता,
साथ हमारा जब परछाई देती है.

रिश्ते अपने सारे पार उतरते हैं,
रूह हमें जब जब गहराई देती है.

हम  अशआर पसीने वाले लिखते हैं,
क़िस्मत हमको खरी कमाई देती है.

सर को उठा कर जीते हैं ख़ुद्दारी से,
ग़ज़ल हमें कैसी सच्चाई देती है.

जाने क्यूं_

*एक अच्छी कविता प्राप्त हुई है, जो मनन योग्य है।*

_"जाने क्यूं_
_अब शर्म से,_
_चेहरे गुलाब नही होते।_
_जाने क्यूं_
_अब मस्त मौला मिजाज नही होते।_

_पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें।_
_जाने क्यूं_
_अब चेहरे_,
_खुली किताब नही होते।_

_सुना है_
_बिन कहे_
_दिल की बात_
_समझ लेते थे।_
_गले लगते ही_
_दोस्त हालात_
_समझ लेते थे।_

_तब ना फेस बुक_
_ना स्मार्ट मोबाइल था_
_ना फेसबुक_
_ना ट्विटर अकाउंट था_
_एक चिट्टी से ही_
_दिलों के जज्बात_
_समझ लेते थे।_

_सोचता हूं_
_हम कहां से कहां आ गये,_
_प्रेक्टीकली सोचते सोचते_
_भावनाओं को खा गये।_

_अब भाई भाई से_
_समस्या का समाधान_
_कहां पूछता है_
_अब बेटा बाप से_
_उलझनों का निदान_
_कहां पूछता है_
_बेटी नही पूछती_
_मां से गृहस्थी के सलीके_
_अब कौन गुरु के_
_चरणों में बैठकर_
_ज्ञान की परिभाषा सीखे।_

_परियों की बातें_
_अब किसे भाती है_
_अपनो की याद_
_अब किसे रुलाती है_
_अब कौन_
_गरीब को सखा बताता है_
_अब कहां_
_कृष्ण सुदामा को गले लगाता है_

_जिन्दगी मे_
_हम प्रेक्टिकल हो गये है_
_मशीन बन गये है सब_
_इंसान जाने कहां खो गये है!_

_इंसान जाने कहां खो गये है....!_

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

नौकरी पर जाती हुई औरते

नौकरी पर जाती हुई औरतें

नौकरी पर जाती हुई औरतें
उठ जाती हैं मेरे शहर में
सूरज के जगने के साथ
निबटा कर घर का चूल्हा-चौका
बर्तन-ताशन
भागती हैं "रेस" के घोड़े की तरह
जिन पर करोड़ो के सट्टे का दारोमदार है
ये औरतें इस अर्थ युग में
परिवार का मेरुदंड हैं
जिनकी कमाई व्यवस्थित करती है
परिवार की स्तरीयता को।

ये औरतें जब मिलती हैं बस अड्डे या ऑटो में
एक-दूसरे की आँखों की झील में झाँकते हुए
पर्स से चबैना निकाल मुँह में डाल
चबाते हुए
फेर लेती हैं आँखें
आँखों की नमी बता देगी सच
इस लिए बड़े ग्लास वाला काला चश्मा चढ़ा
निकलती हैं मुस्कुराते हुए
इन्हें शायद ही मिलता है दिन में गर्म खाना
रात में स्वप्न भर नींद
शायद ही याद रहता है
कब हँसी थीं खिलखिलाकर
मन भर कब बतियाया था किसी अंतरंग मित्र से
कब निश्चिंत रोई थीं
ये औरतें भूल जाती हैं खुद को
नौकरी पर जाते हुए।

नौकरी पर जाती हुई
मिडिल क्लास औरतें
दुधार गाय बन चुकी हैं पितृसत्ता के लिए
जिन्हें नैतिकता की रस्सी के सहारे
बाँधा जाता है
संस्कारों के खूँटे में
अनवरत दुही जाती हैं स्नेह से
जब तक कमाऊ हैं
कमाई का हिसाब बड़ी समझ से लिया जाता है
इस तर्क के साथ
भोली हो ठग ली जाओगी
औरतें लक्ष्मी हैं सच है
पर वाहन उल्लू
ठगी जाती हैं
अपनों से रोज
नौकरी पर जाती हुई औरतें।

नौकरी पर जाना विवशता है
कमाना अनिवार्य
अब हर लड़की भेजी जा रही है
शिक्षा के कारखाने में
सीखने के लिए कमाने का हुनर
अर्थ युग में बढ़ रही है
कमाऊ औरतों की माँग
ये औरतें चलता-फिरता-बोलता
कारखाना बन चुकी है
एक साथ कई उत्पाद पैदा करतीं
एक बड़ी आर्थिक इकाई में बदल चुकी औरतें
इन पर टिका है पितृसत्ता का मान
इस लिए देहरी लाँघ चल पड़ी हैं
भूल कर खुद को
भाग रही हैं सरपट
नौकरी पर जाती हुई औरतें।