शनिवार, 22 अप्रैल 2017

सखी री .....

सखी री .....

कह दे दिल की बात सखी री
काहे को सकुचात सखी री

प्रेम पथिक आने को सुनि के
मन मयूर हरषात सखी री

मधुर हास नयना कजरारे
पुलकित कोमल गात सखी री

मुक्त मुखर मन मुदित अति मम
अंग अनंग मुसकात सखी री

मन आँगन में आहट उनकी
विकल मोहि कर जात सखी री

का से कहूँ मैं विरह वेदना 
तरुण तृषा तरसात सखी री

प्रिय पाँहुन आये नहीं अजहूं
बीती सारी रात सखी री

©© रतनसिंह चम्पावत कृत©©

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

तराना

मेरी गजल

प्रेम का रिश्ता मनाना हो गया।
मुस्कुराये इक जम़ाना हो गया।

चुप हुए तो लोग  कहने  यूं लगे
हर तरीका अब बहाना हो गया।

चल रहे थे साथ बनकर साज से
जब सजी  यादें तराना हो गया।

बिन कहे जज्बात भी कहने लगा
आज ये  बच्चा सयाना हो गया।

कर रही हूँ गलतियां उनकी नजर
आज 'दीपा' फिर फसाना हो गया ।

दीपा परिहार

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

आगे सफर था और पीछे हमसफर था...

क्या खूब लिखा है किसी ने...

आगे सफर था और पीछे हमसफर था...

रूकते तो सफर छूट जाता और चलते तो हमसफर छूट जाता...

मंजिल की भी हसरत थी और उनसे भी मोहब्बत थी...

ए दिल तू ही बता,उस वक्त मैं कहाँ जाता...

मुद्दत का सफर भी था और बरसो
का हमसफर भी था

रूकते तो बिछड जाते और चलते तो बिखर जाते...

यूँ समँझ लो,

प्यास लगी थी गजब की
मगर पानी मे जहर था...

पीते तो मर जाते और ना पीते तो भी मर जाते...


बस यही दो मसले, जिंदगीभर ना हल हुए...
ना नींद पूरी हुई, ना ख्वाब मुकम्मल हुए...

वक़्त ने कहा.....काश थोड़ा और सब्र होता...
सब्र ने कहा....काश थोड़ा और वक़्त होता

सुबह सुबह उठना पड़ता है कमाने के लिए साहेब...
आराम कमाने निकलता हूँ आराम छोड़कर...


"हुनर" सड़कों पर तमाशा करता है और "किस्मत" महलों में राज करती है...

"शिकायते तो बहुत है तुझसे ऐ जिन्दगी,

पर चुप इसलिये हु कि, जो दिया तूने,
वो भी बहुतो को नसीब नहीं होता"...

अजीब सौदागर है ये वक़्त भी
जवानी का लालच दे के बचपन ले गया...

अब अमीरी का लालच दे के जवानी ले जाएगा...


लौट आता हूँ वापस घर की तरफ... हर रोज़ थका-हारा,
आज तक समझ नहीं आया की जीने के लिए काम करता हूँ या काम करने के लिए जीता हूँ...

बचपन में सबसे अधिक बार पूछा गया सवाल -
"बङे हो कर क्या बनना है ?"
जवाब अब मिला है, - "फिर से बच्चा बनना है...

“थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी
मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे...

दोस्तों से बिछड़ कर यह हकीकत खुली...

बेशक, कमीने थे पर रौनक उन्ही से थी...

भरी जेब ने ' दुनिया ' की पहेचान करवाई और खाली जेब ने ' अपनो ' की...

जब लगे पैसा कमाने, तो समझ आया,
शौक तो मां-बाप के पैसों से पुरे होते थे,
अपने पैसों से तो सिर्फ जरूरतें पुरी होती है...

हंसने की इच्छा ना हो,
तो भी हसना पड़ता है...
.
कोई जब पूछे कैसे हो..?
तो मजे में हूँ कहना पड़ता है...
.

ये ज़िन्दगी का रंगमंच है दोस्तों,
यहाँ हर एक को नाटक करना पड़ता है...

"माचिस की ज़रूरत यहाँ नहीं पड़ती,
यहाँ आदमी आदमी से जलता है...

दुनिया के बड़े से बड़े साइंटिस्ट, ये ढूँढ रहे हैं की
मंगल ग्रह पर जीवन है या नहीं...

पर आदमी ये नहीं ढूँढ रहा
कि जीवन में मंगल है या नहीं...

मंदिर में फूल चढ़ा कर आए तो यह एहसास हुआ,
कि...

पत्थरों को मनाने में ,
फूलों का क़त्ल कर आए हम...

गए थे गुनाहों की माफ़ी माँगने,
वहाँ एक और गुनाह कर आए हम..
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(●_●)
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Anil Jangid

सोमवार, 3 अप्रैल 2017

वह कहता था, वह सुनती थी

वह कहता था,
वह सुनती थी,

जारी था एक खेल
कहने-सुनने का।

खेल में थी दो पर्चियाँ
एक में लिखा था ‘कहो’,
एक में लिखा था ‘सुनो’

अब यह नियति थी
या महज़ संयोग.. ?

उसके हाथ लगती रही वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’

वह सुनती रही
उसने सुने आदेश
उसने सुने उपदेश

बन्दिशें उसके लिए थीं
उसके लिए थीं वर्जनाएँ

वह जानती थी,
'कहना-सुनना'
नहीं हैं केवल क्रियाएं

राजा ने कहा,
'ज़हर पियो'
वह मीरा हो गई

ऋषि ने कहा,
'पत्थर बनो'
वह अहिल्या हो गई

प्रभु ने कहा,
'निकल जाओ'
वह सीता हो गई

चिता से निकली चीख,
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी
वह सती हो गई

घुटती रही उसकी फरियाद,
अटके रहे शब्द,

सिले रहे होंठ,
रुन्धा रहा गला।

उसके हाथ
कभी नहीं लगी वह पर्ची,
जिस पर लिखा था, ‘कहो'

-अमृता प्रीतम-

तेरी बुराइयों को

*'कुछ पंक्तिया विचार करने लायक'*

तेरी बुराइयों को हर अख़बार कहता है,
और तू मेरे गांव को गँवार कहता है।

ऐ शहर मुझे तेरी औक़ात पता है,l
तू बच्ची को भी हुस्न ए बहार कहता है।

थक गया है हर शख़्स काम करते करते,
तू इसे अमीरी का बाज़ार कहता है।

गांव चलो वक्त ही वक्त है सबके पास,
तेरी सारी फ़ुर्सत तेरा इतवार कहता है।

मौन होकर फोन पर रिश्ते निभाए जा रहे हैं,
तू इस मशीनी दौर को परिवार कहता है।

जिनकी सेवा में खपा देते थे जीवन सारा,
तू उन माँ बाप को अब भार कहता है।

वो मिलने आते तो कलेजा साथ लाते थे,
तू दस्तूर निभाने को रिश्तेदार कहता है।

बड़े-बड़े मसले हल करती थी पंचायतें,
अंधी भ्रष्ट दलीलों को दरबार कहता है।

बैठ जाते थे अपने पराये सब बैलगाडी में।
पूरा परिवार भी न बैठ पाये उसे तू कार कहता है।

अब बच्चे भी बड़ों का अदब भूल बैठे हैं,
तू इस नये दौर को संस्कार कहता है।