शनिवार, 29 जुलाई 2017

मानव / सुमित्रानंदन पंत

सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर,
मानव! तुम सबसे सुन्दरतम,
निर्मित सबकी तिल-सुषमा से
तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम!
यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन,
मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग,
न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,
छाया-प्रकाश के रूप-रंग!
धावित कृश नील शिराओं में
मदिरा से मादक रुधिर-धार,
आँखें हैं दो लावण्य-लोक,
स्वर में निसर्ग-संगीत-सार!
पृथु उर, उरोज, ज्यों सर, सरोज,
दृढ़ बाहु प्रलम्ब प्रेम-बन्धन,
पीनोरु स्कन्ध जीवन-तरु के,
कर, पद, अंगुलि, नख-शिख शोभन!
यौवन की मांसल, स्वस्थ गंध,
नव युग्मों का जीवनोत्सर्ग!
अह्लाद अखिल, सौन्दर्य अखिल,
आः प्रथम-प्रेम का मधुर स्वर्ग!
आशाभिलाष, उच्चाकांक्षा,
उद्यम अजस्र, विघ्नों पर जय,
विश्वास, असद् सद् का विवेक,
दृढ़ श्रद्धा, सत्य-प्रेम अक्षय!
मानसी भूतियाँ ये अमन्द,
सहृदयता, त्याद, सहानुभूति,--
हो स्तम्भ सभ्यता के पार्थिव,
संस्कृति स्वर्गीय,--स्वभाव-पूर्ति!
मानव का मानव पर प्रत्यय,
परिचय, मानवता का विकास,
विज्ञान-ज्ञान का अन्वेषण,
सब एक, एक सब में प्रकाश!
प्रभु का अनन्त वरदान तुम्हें,
उपभोग करो प्रतिक्षण नव-नव,
क्या कमी तुम्हें है त्रिभुवन में
यदि बने रह सको तुम मानव!

रचनाकाल: अप्रैल’१९३५

~ मानव / सुमित्रानंदन पंत

गुरुवार, 27 जुलाई 2017

युवक

युवक ही रणचंडी के ललाट की रेखा है|
युवक स्वदेश की यश-दुन्दुभी का तुमुल निनाद है|
युवक ही स्वदेश की विजय-वैजयंती का सुदृढ़ दंड है|
वह महासागर की उत्ताल तरंगों के समान उद्दंड है|
वह महाभारत के भीष्मपर्व की पहली ललकार से समान विकराल है,
प्रथम मिलन के स्फीत चुम्बन की तरह सरस है,
रावण के अहंकार की तरह निर्भीक है
प्रह्लाद के सत्याग्रह की तरह दृढ़ और अटल है| अगर किसी विशाल ह्रदय की आवश्यकता हो,तो युवकों के ह्रदय टटोलो |
अगर किसी आत्मत्यागी वीर की छह हो तो युवकों से मांगो |
रसिकता उसी के बांटे पड़ी है|
भावुकता पर उसी का सिक्का है|
वह छंद-शास्त्र से अनभिज्ञ होने पर भी प्रतिभाशाली कवि है|
कवि भी उसी के ह्रुदयारविंद का मधुप है |
वह रसों की परिभाषा नहीं जानता,पर वह कविता का सच्चा मर्मज्ञ है |
सृष्टि की एक विषम समस्या है युवक |
ईश्वरीय रचना कौशल का एक उत्कृष्ट नमूना है युवक |
संध्या समय वह नदी के तट पर घंटों बैठा रहता है|
क्षितिज की ओर बढ़ते जाने वाले रक्त-राशि सूर्यदेव को आकृष्ट नेत्रों से देखता जाता है | विचित्र है उसका जीवन|
अद्भुत है उसका साहस|अमोघ है उसका उत्साह|
वह निश्चिन्त है,असावधान है|
लगन लग गयी,तो रात-भर जागना उसके बाएं हाथ का खेल है,जेठ की दुपहरी चैतकी चांदनी है,सावन-भादों की झड़ी मंगलोत्सव की पुष्पवृष्टि है,श्मशान की निस्ताभ्द्ता,उद्यान का विहंग-कल-कूजन है|
वह इच्छा करे तो समाज और जाती को उद्बुद्ध कर दे,देश की लाली रख ले,राष्ट्र का मुखोज्जल कर दे,बड़े-बड़े साम्राज्य उलट डाले|
पतितों के उत्थान और संसार के उद्धारक सूत्र उसी के हाथ में है |
वह इस विशाल विश्वरंगस्थल का सिद्धहस्त खिलाड़ी है|

सोमवार, 24 जुलाई 2017

नुमाइश

रोज़ तारों को नुमाइश में खलल पड़ता हैं
चाँद पागल हैं अंधेरे में निकल पड़ता हैं

मैं समंदर हूँ कुल्हाड़ी से नहीं कट सकता
कोई फव्वारा नही हूँ जो उबल पड़ता हैं

कल वहाँ चाँद उगा करते थे हर आहट पर
अपने रास्ते में जो वीरान महल पड़ता हैं

ना त-आरूफ़ ना त-अल्लुक हैं  मगर दिल अक्सर
नाम सुनता हैं  तुम्हारा तो उछल पड़ता हैं

उसकी याद आई हैं  साँसों ज़रा धीरे चलो
धड़कनो से भी इबादत में खलल पड़ता हैं

रविवार, 16 जुलाई 2017

बाह रे टमाटर

बाह रे टमाटर
               दोहा
मारा मारा जो फिरा,  गलियों में बेहाल।
वही टमाटर हो गया, देखो मालामाल ।।
-
सड़कों पर फैंका गया ,जैसे कोई अनाथ ।
नहीं टमाटर आ रहा ,आज किसी  के हाॅथ ।।
-
भाव टमाटर का हुआ ,अब अस्सी के पार ।
अच्छे अच्छे देखकर,टपका रहे हैं लार ।।
-
विना टमाटर के नहीं,अच्छी लगे सलाद  ।
भोजन का बेकार सब ,विना टमाटर स्वाद ।।
-
विना टमाटर के लगे ,घर का फ्रिज बेकार ।
जैसे साली के विना ,लगती है ससुरार ।।
-
एक टमाटर सूॅघ कर ,दिल भर लेते आज ।
विना टमाटर रो रही ,फुसक फुसक कर प्याज ।।
-
जब सड़ते थे टमाटर ,तब ना समझा मोल ।
आज टमाटर हो गया ,साब किचिन से गोल ।।

-
आनंदित हों आप सब ,देख टमाटर लाल ।
विना टमाटर खाईये ,अब अरहर की दाल ।।

बारिश पड़े तो भागिए नहीं....

बारिश पड़े तो भागिए नहीं....... छत नहीं खोजिये........ छाते कभी-कभार बंद रखिये...... किस बात का डर है......? भीग जायेंगे न...........?

तो क्या हुआ...... पिघलेंगे नहीं.. ....फिर से सूख जायेंगे.. ....

तेजाब नहीं बरस रहा है........

आपकी 799 वाली टी-शर्ट भी सूख जायेगी.... ब्रांड भी उसका Levis से Lebis नहीं हो जायेगा..... ...

मोबाइल पालीथिन में कस के रख लीजिये.....

सड़क साफ़ है.. .....कोई नहीं आएगा.......

उस स्ट्रीट लैम्प की पीली रौशनी में डिस्को करती बूंदों को देखिये..........

थोड़ा धीरे चलिए.......
जल्दी पहुंच के भी क्या बदल जाना है......

बारिश बदलाव है....... मौसम का.... मन का..... कल्पनाओं का....... और लाइफ के गियर का...... दिमाग से दिल की तरफ........

सब धुल रहा है........ प्रकृति सब कुछ धो रही है.. ........आप क्यूँ उसी मनहूसियत की चीकट लपेटे घूम रहे हैं.........

याद कीजिये...........

वो कागज़ की नाव, काँलेज/कोचिंग  में भीगे सिर आए वो लड़की, लड़के, बारिश में जबरदस्ती नाचने को खींच कर ले गये दोस्त........

सब चलते-चलते याद कीजिये.........

दुहराना आसान नहीं होता........ दुहराना चाहिए भी नहीं........ लेकिन सहेजा तो जा ही सकता है.......... ताकि ऐसी किसी बारिश में चलते-चलते सोच के मुस्कुराया भी जा सके.........

ज़ुकाम से मत डरिये.........दवा से सही हो जायेगा.........

बारिश से डरेंगे तो फिर ज़ुकाम आपका महंगा वाला शावर भी ठीक नहीं कर पायेगा.........

और वैसे भी........ मैंने शावर में सिर्फ लोगों को रोते सुना है......... मुस्कुराते नहीं........क्योंकि  उनका गाना भी रोने से कम नहीं होता है..........

बारिश आई है........... थोड़ा चल लीजिये..........थोड़ा भीग लीजिये...........खुद से मिल लीजिये.........थोड़ा मुस्कुरा भी लीजिये.......

क्योंकि बारिश चन्द दिनों के लिये आई है.......
जैसे सावन में बिटिया घर आई हो.........

चली जायेगी वापस............फिर न रोइयेगा कि अब कब आयेगी..........

बारिश हो रही है...........उसके सहारे कुछ पल अपने लिये भी जी लेने की कोशिश कर लीजिये.......

मानसून की हार्दिक बधाई...☔☔

क़ुदरत मुझको जब तन्हाई देती है,

क़ुदरत मुझको जब तन्हाई देती है,
झरनों की आवाज़ सुनाई देती है.

अपने बदन को छूता हूँ तो क्यूँ मुझको ,
कपडे पहने हवा दिखाई देती है.

आगे-पीछे दौड़ रहे हैं नदियों के,
प्यास हमें कैसी रुसवाई देती है.

सफ़र बड़ा आसान हमारा हो जाता,
साथ हमारा जब परछाई देती है.

रिश्ते अपने सारे पार उतरते हैं,
रूह हमें जब जब गहराई देती है.

हम  अशआर पसीने वाले लिखते हैं,
क़िस्मत हमको खरी कमाई देती है.

सर को उठा कर जीते हैं ख़ुद्दारी से,
ग़ज़ल हमें कैसी सच्चाई देती है.

जाने क्यूं_

*एक अच्छी कविता प्राप्त हुई है, जो मनन योग्य है।*

_"जाने क्यूं_
_अब शर्म से,_
_चेहरे गुलाब नही होते।_
_जाने क्यूं_
_अब मस्त मौला मिजाज नही होते।_

_पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें।_
_जाने क्यूं_
_अब चेहरे_,
_खुली किताब नही होते।_

_सुना है_
_बिन कहे_
_दिल की बात_
_समझ लेते थे।_
_गले लगते ही_
_दोस्त हालात_
_समझ लेते थे।_

_तब ना फेस बुक_
_ना स्मार्ट मोबाइल था_
_ना फेसबुक_
_ना ट्विटर अकाउंट था_
_एक चिट्टी से ही_
_दिलों के जज्बात_
_समझ लेते थे।_

_सोचता हूं_
_हम कहां से कहां आ गये,_
_प्रेक्टीकली सोचते सोचते_
_भावनाओं को खा गये।_

_अब भाई भाई से_
_समस्या का समाधान_
_कहां पूछता है_
_अब बेटा बाप से_
_उलझनों का निदान_
_कहां पूछता है_
_बेटी नही पूछती_
_मां से गृहस्थी के सलीके_
_अब कौन गुरु के_
_चरणों में बैठकर_
_ज्ञान की परिभाषा सीखे।_

_परियों की बातें_
_अब किसे भाती है_
_अपनो की याद_
_अब किसे रुलाती है_
_अब कौन_
_गरीब को सखा बताता है_
_अब कहां_
_कृष्ण सुदामा को गले लगाता है_

_जिन्दगी मे_
_हम प्रेक्टिकल हो गये है_
_मशीन बन गये है सब_
_इंसान जाने कहां खो गये है!_

_इंसान जाने कहां खो गये है....!_

शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

नौकरी पर जाती हुई औरते

नौकरी पर जाती हुई औरतें

नौकरी पर जाती हुई औरतें
उठ जाती हैं मेरे शहर में
सूरज के जगने के साथ
निबटा कर घर का चूल्हा-चौका
बर्तन-ताशन
भागती हैं "रेस" के घोड़े की तरह
जिन पर करोड़ो के सट्टे का दारोमदार है
ये औरतें इस अर्थ युग में
परिवार का मेरुदंड हैं
जिनकी कमाई व्यवस्थित करती है
परिवार की स्तरीयता को।

ये औरतें जब मिलती हैं बस अड्डे या ऑटो में
एक-दूसरे की आँखों की झील में झाँकते हुए
पर्स से चबैना निकाल मुँह में डाल
चबाते हुए
फेर लेती हैं आँखें
आँखों की नमी बता देगी सच
इस लिए बड़े ग्लास वाला काला चश्मा चढ़ा
निकलती हैं मुस्कुराते हुए
इन्हें शायद ही मिलता है दिन में गर्म खाना
रात में स्वप्न भर नींद
शायद ही याद रहता है
कब हँसी थीं खिलखिलाकर
मन भर कब बतियाया था किसी अंतरंग मित्र से
कब निश्चिंत रोई थीं
ये औरतें भूल जाती हैं खुद को
नौकरी पर जाते हुए।

नौकरी पर जाती हुई
मिडिल क्लास औरतें
दुधार गाय बन चुकी हैं पितृसत्ता के लिए
जिन्हें नैतिकता की रस्सी के सहारे
बाँधा जाता है
संस्कारों के खूँटे में
अनवरत दुही जाती हैं स्नेह से
जब तक कमाऊ हैं
कमाई का हिसाब बड़ी समझ से लिया जाता है
इस तर्क के साथ
भोली हो ठग ली जाओगी
औरतें लक्ष्मी हैं सच है
पर वाहन उल्लू
ठगी जाती हैं
अपनों से रोज
नौकरी पर जाती हुई औरतें।

नौकरी पर जाना विवशता है
कमाना अनिवार्य
अब हर लड़की भेजी जा रही है
शिक्षा के कारखाने में
सीखने के लिए कमाने का हुनर
अर्थ युग में बढ़ रही है
कमाऊ औरतों की माँग
ये औरतें चलता-फिरता-बोलता
कारखाना बन चुकी है
एक साथ कई उत्पाद पैदा करतीं
एक बड़ी आर्थिक इकाई में बदल चुकी औरतें
इन पर टिका है पितृसत्ता का मान
इस लिए देहरी लाँघ चल पड़ी हैं
भूल कर खुद को
भाग रही हैं सरपट
नौकरी पर जाती हुई औरतें।

बुधवार, 12 जुलाई 2017

You Start Dying Slowly

नोबेल पुरस्कार विजेता स्पेनिश कवि पाब्लो नेरुदा की कविता "You Start Dying Slowly" का हिन्दी अनुवाद..

1) आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- करते नहीं कोई यात्रा,
- पढ़ते नहीं कोई किताब,
- सुनते नहीं जीवन की ध्वनियाँ,
- करते नहीं किसी की तारीफ़।

2) आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, जब आप:
- मार डालते हैं अपना स्वाभिमान,
- नहीं करने देते मदद अपनी और न ही करते हैं मदद दूसरों की।

3) आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- बन जाते हैं गुलाम अपनी आदतों के,
- चलते हैं रोज़ उन्हीं रोज़ वाले रास्तों पे,
- नहीं बदलते हैं अपना दैनिक नियम व्यवहार,
- नहीं पहनते हैं अलग-अलग रंग, या
- आप नहीं बात करते उनसे जो हैं अजनबी अनजान।

4) आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- नहीं महसूस करना चाहते आवेगों को, और उनसे जुड़ी अशांत भावनाओं को, वे जिनसे नम होती हों आपकी आँखें, और करती हों तेज़ आपकी धड़कनों को।

5) आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं, अगर आप:
- नहीं बदल सकते हों अपनी ज़िन्दगी को, जब हों आप असंतुष्ट अपने काम और परिणाम से,
- अग़र आप अनिश्चित के लिए नहीं छोड़ सकते हों निश्चित को,
- अगर आप नहीं करते हों पीछा किसी स्वप्न का,
- अगर आप नहीं देते हों इजाज़त खुद को, अपने जीवन में कम से कम एक बार, किसी समझदार सलाह से दूर भाग जाने की..।
*तब आप धीरे-धीरे मरने लगते हैं..!!*

इस सुन्दर कविता के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

बिखरे काग़ज़ पे

बिखरे काग़ज़ पे कूँचियाँ  ,कलर ट्यूब
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने खयालों को अपने कुछ रंगो से भरा है

चादर की सिलवटों पे औंधे पड़े तकिये
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने रात को अपने कुछ ख़्वाबों से छुआ है

बेतरतीब रखी किताबों से झाँकते बुकमार्क
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने दुनिया को अपने कुछ सवालों से टटोला है

पसीने से भीगे कपड़े , गर्द मे लिपटे जूते
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने माटी को अपने कुछ खेलों से छुआ है

दिवार से टिका गिटार, कोने में रखा पयानो
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने हवा को अपने कुछ सुरों से सुना है

छेदों से भरे यहाँ वहाँ से झाँकते टारगेट पेपर
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों नें ध्यान से अपने कुछ लक्ष्यों को भेदा है

मर्तबान के अधखुले ढक्कन , झूठे बर्तन
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने भूख को अपने कुछ स्वाद से चखा है

बिखरा घर, खुल-बंद  का शोर करते  दरवाज़े
अच्छे लगते है मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने जीवन को अपने कुछ अंदाज से जिया है

एक दिन न शोर होगा न फैला सामान होगा
अच्छा लगेगा मुझे तब भी
कहेगा मौन घर तब मुझसे
मेरे बच्चों ने आसमां को अपने कुछ हौसलों की परवाज़ से चूमा है

समेट लूँगी यह सामान घर की ख़ामोशी में
सजा दूँगी दिवारों को यादों से
पर तब तक यूँ ही उथल पथल सी रहने दो
मेरे बच्चों का बचपन यूँ फैला सा अच्छा लगता है मुझे
‍‍‍‍‍‍