शनिवार, 1 जुलाई 2017

बिखरे काग़ज़ पे

बिखरे काग़ज़ पे कूँचियाँ  ,कलर ट्यूब
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने खयालों को अपने कुछ रंगो से भरा है

चादर की सिलवटों पे औंधे पड़े तकिये
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने रात को अपने कुछ ख़्वाबों से छुआ है

बेतरतीब रखी किताबों से झाँकते बुकमार्क
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने दुनिया को अपने कुछ सवालों से टटोला है

पसीने से भीगे कपड़े , गर्द मे लिपटे जूते
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने माटी को अपने कुछ खेलों से छुआ है

दिवार से टिका गिटार, कोने में रखा पयानो
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने हवा को अपने कुछ सुरों से सुना है

छेदों से भरे यहाँ वहाँ से झाँकते टारगेट पेपर
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों नें ध्यान से अपने कुछ लक्ष्यों को भेदा है

मर्तबान के अधखुले ढक्कन , झूठे बर्तन
अच्छे लगते हैं मुझे
कहते हैं यह मुझसे
मेरे बच्चों ने भूख को अपने कुछ स्वाद से चखा है

बिखरा घर, खुल-बंद  का शोर करते  दरवाज़े
अच्छे लगते है मुझे
कहते है यह मुझसे
मेरे बच्चों ने जीवन को अपने कुछ अंदाज से जिया है

एक दिन न शोर होगा न फैला सामान होगा
अच्छा लगेगा मुझे तब भी
कहेगा मौन घर तब मुझसे
मेरे बच्चों ने आसमां को अपने कुछ हौसलों की परवाज़ से चूमा है

समेट लूँगी यह सामान घर की ख़ामोशी में
सजा दूँगी दिवारों को यादों से
पर तब तक यूँ ही उथल पथल सी रहने दो
मेरे बच्चों का बचपन यूँ फैला सा अच्छा लगता है मुझे
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