शनिवार, 19 नवंबर 2016

उजाला

मेरी गज़ल।

उजाला जब बसर करने लगा है।
सवेरा  भी  हंसी  लगने  लगा है।

उठा सैलाब  ऐसा मन के अंदर
उमंगो का सफर थमने लगा है।

बनाता घर निवाले छीन कर वो
निराले पाप अब  करने लगा है।

लुटेरा बन  सुखी होता  जमाना
निराले  से बहाने गढ़ने  लगा है।

जमाना को दिखा मत जख़्म दीपा
दिखाने  पर  जहाँ हँसने  लगा है।

दीपा परिहार

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