सोमवार, 14 नवंबर 2016

परिंदा

कुछ स्पंदन

कहने को तो वो परिंदा यह शज़र छोड़ गया
मगर हर शा़खो गुल पर अपना असर छोड़ गया

सरे शाम वह मेरी महफ़िल से रुख़सत हो गया
जाते जाते मुझ पर  कातिल नज़र छोड़ गया

सिवा खुद के सब को अपने  साथ लेकर जाऊंगा
तेरी दुनिया जो मैं  सचमुच अगर  छोड़ गया

खाली हाथ आया था खाली हाथ चला गया
जो कुछ लिया था यहीं से यहीं पर छोड़ गया

तिज़ारत ए इश्क में बराबरी का सौदा था
नूर ए च़श्म ले गया तो च़श्म ए त़र छोड़ गया

उस तिश्नालबी का भी क्या अज़ब सा आलम था
क़तरे की ख़ातिर  सारा समंदर छोड़ गया

रतन सिंह चंपावत कृत

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