कुछ स्पंदन
कहने को तो वो परिंदा यह शज़र छोड़ गया
मगर हर शा़खो गुल पर अपना असर छोड़ गया
सरे शाम वह मेरी महफ़िल से रुख़सत हो गया
जाते जाते मुझ पर कातिल नज़र छोड़ गया
सिवा खुद के सब को अपने साथ लेकर जाऊंगा
तेरी दुनिया जो मैं सचमुच अगर छोड़ गया
खाली हाथ आया था खाली हाथ चला गया
जो कुछ लिया था यहीं से यहीं पर छोड़ गया
तिज़ारत ए इश्क में बराबरी का सौदा था
नूर ए च़श्म ले गया तो च़श्म ए त़र छोड़ गया
उस तिश्नालबी का भी क्या अज़ब सा आलम था
क़तरे की ख़ातिर सारा समंदर छोड़ गया
रतन सिंह चंपावत कृत
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