बरेली की काल कोठरी में
जहाँ सूरज कम निकलता था
छेदों की रोशनी में
वो फिर अपना दम भरता था
हुँकार करता ,हुँकार भरता
अपना वजूद बताता था
था सिंग मेवाड का
आजादी का दिवाना था
गोरों की यातनाओं ने
उसका मन तोडा नहीं
राज था जो मन में
उसने कभी खोला नहीं
देख प्रताप अभी बता दे
जिन्दगी अभी लम्बी है
बोल कहा कहा ठिकाने है
कितने तेरे संगी है
तेरे पिता को मिलेगी जागीर वापस
सोने का तेरा सूरज होगा
राज सब बता दे
लाख पसार तेरा यश होगा
प्रलोभन कोई हिला न पाया
फिर अंग्रेज गुरराया
देख पगले तुझे प्यार है तेरी माँ से
तेरी माँ अब सब दिन रोती है
छोड चुकी खाना पिना
अपनी आँखे भिगोती है
तु भी है अब अधमरा
कुछ प्राप्त तुमकों होगा नही
कल सुबह तक राज बता देना
देगे हम भी धोखा नही
सुबह छेद की किरण से
उसने फिर हूँकार भरी
आँखे उसकी फिर उठी
उसने फिर आवाज भरी
आज अगर नहीं बताऊ
नाम अपने मतवालों के
तो सिर्फ मेरी माँ रोयेगी
गर बता दू तो
जाने कितनी माएँ रोएगी
मैं तुमसे पार पडुगा नही
तुम्हारें अत्याचारों से हिलुगा नहीं
हुँ सिर्फ भारत माँ का बेटा आज
बलिवेदी पर चढ़ जाऊगा
नाम मेरा सिंग प्रताप
बस ये तुम्हें बतलाऊ गा
सूरज की किरणें फिर दमकी
रंगरेजों की हार हुई
केसरी पुत्र शहिद हुआ
माँ की छाती में चित्कार हुई
पिता ने समझाया
धन्य माणक तुने प्रताप जाया
देख तेरे पूत्र ने दूध न लजाया
ये शहादत अग्नी को बढाएगी
बलिवेदी पर चढ चढ कर ही
एक दिन स्वतन्त्रता चली आएगी.....
= विक्रमादित्य बारहठ
( रूपावास)
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