*पद्मिनी का प्रेम*
- *डॉ. गजादान चारण 'शक्तिसुत'*
सुंदरता खुद जिससे मिलकर, सुंदरतम हो आई थी।
जिसके मन मंदिर में अपने, पिय की शक्ल समाई थी।
शील, पतिव्रत की दुनिया को, जिसने सीख सिखाई थी।
जौहर की ज्वाला में जलकर, जिसने जान लुटाई थी।
सदियों के गौरव को जिसने, अम्बर तक पहुंचाया था।
स्वाभिमान को शक्ति देकर, खिलजी से भिड़वाया था।
जीते जी राणा को चाहा, और चाह ना उसकी थी।
सत-पथ पे चलती थी हरदम, सत पे जीती मरती थी।
चित्तौड़ दुर्ग की वह महारानी, रति से सुंदर दिखती थीं।
उर्वशी, रम्भा सी परियां, नहीं एक पल टिकती थीं।
कामदेव भी जिसे देखकर, विचलित सा हो जाता था।
अलाउद्दीन खिलजी उसको ही, हुरम बनाना चाहता था।
पर वो राजपूत की बेटी, प्रण की बड़ी पुजारी थी।
पति के सिवा उसे दुनिया में, कोई चीज न प्यारी थी।
खिलजी की तो उस पदमण पर, परछाई भी नहीं पड़ी।
लाज बचाने के खातिर वो, अग्निकुंड में कूद पड़ी।
मर के अमर हुई महारानी, तीर्थ बनी चित्तौड़ धरा।
उज्ज्वल क्षत्री वंश हुआ और राजस्थानी वसुंधरा।
उसको कामी खिलजी की ये, आज प्रेमिका कहते हैं।
हैरत है ये अर्थपुजारी, इस भारत में रहते हैं।
जिनका धर्म इमां पैसा है, वे क्या जाने मर्यादा।
पैसा लेकर जहां प्यार को, कर लेते आधा आधा।
राजस्थानी कुल-कानी को, समझे ऐसी सोच कहाँ।
प्रगतिवाद के इन पुतलों में, मानवता का लोच कहाँ।
गर इतिहास हुआ खंडित तो, पीछे कुछ ना बच पाएगा।!!
संस्कृति का अमृत निर्झर, जहर सना हो जाएगा।
हर गौरव की थाती को ये, मनोविनोदी ले लेंगे।
और उसे विकृत कर करके, फिल्मकहानी गढ़ लेंगे।
अब पानी सर पर है आया, उठ पतवार संभालो तुम।
डूब न जाए अर्थ-समंद में, ये इतिहास बचालो तुम।
मेरे भारत के युवाओ! इक रानी की बात नहीं।
पद्मिनी हो या जोधा को, फिल्माने की बात नहीं।
बात सिर्फ है स्वाभिमान की, सत्य सनातन वो ज्योती।
उसपे घात करे कोई तो, हमसे सहन नहीं होती।
डॉ. गजादान चारण 'शक्तिसुत'