रविवार, 20 दिसंबर 2020

मधुकर

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नित सजल नेह की सरिता मे।
मृदु कुमुद नीड़ की कविता मे।
उस छंद बद्ध की ड़गर सुघड़।
मन सुमन सुवासित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

करुणा की केशर क्यारी मे।
अरुणिमा अधर फुलवारी मे।
उरतल की निश्छल गात महा।
हृद् मुकुर सुवासित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नयनों की शीतल छाया मे।
आंसु की गहनतम माया मे।
पलकों की निर्मल कुंज मृदुल।
नित नेह सुभाषित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

नित-नित चरणों के पावन रज।
मुकलित,प्रमुदित,रक्तिम नीरज।
लालायित नयनन की आभा।
अश्रु सिंधु समाहित होते हैं।

रक्तिम अधरों के पंकज उर,मृदु सुमन सुवासित होते हैं।
मरंद के झरते हैं निर्झर,मधुकर लालायित होते हैं।।

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

पुरखे कभी विदा नहीं होते हैं....

पुरखे कभी विदा नहीं होते हैं....

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं
संतति के कण कण में रचे होते हैं
 
मज्जा नाड़ी रक्त में प्रवाहित होते हैं
चेतना प्रज्ञा स्मृति में समाहित होते हैं

देहरी आँगन द्वार  दीवार में ढ़ले होते हैं
ऐनक कुर्सी मेज कलम सब में बसे होते हैं

तीज त्यौहार प्रथा परम्पराओं में होते हैं
भूल चूक होते ही तस्वीरों में प्रगट होते हैं

हौंसलों उम्मीदों और सहारों में भी छिपे होते हैं
विचारों क्रियाओं विरासतों में अवश्य ही होते हैं

बोल चाल भाषा शैली हाव भाव सबमें होते हैं
पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं 

ज्येष्ठ भगिनी के चेहरे के पीछे छिपी माँ  में उपस्थित होते हैं
ज्येष्ठ भ्राता के उत्तरदायित्वों में पिता ही विराजित होते हैं

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते.....

पुरखे आसमान से नीचे आते आशीर्वादों में होते हैं
पुरखे धरती से ऊपर जाती श्रद्धाओं में होते हैं......

पुरखे जगत से कभी विदा नहीं होते हैं... !! 

          सर्वपितृ अमावस्या
नमन उनको जिनसे हम हैं.......... 

हाथ भले ही छूट जाते हों......
लेकिन स्पर्श बना रहता है मन में....

सोमवार, 14 सितंबर 2020

नारी तुझे सलाम

स्त्रियाँ, 
कुछ भी बर्बाद
 नही होने देतीं।
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक।
कभी तुरपाई कर के।
कभी टाँका लगा के।
कभी धूप दिखा के।
कभी हवा झला के।
कभी छाँटकर।
कभी बीनकर।
कभी तोड़कर।
कभी जोड़कर।
देखा होगा ना ?
अपने ही घर में उन्हें
खाली डब्बे जोड़ते हुए। 
बची थैलियाँ मोड़ते हुए।
 बची रोटी शाम को खाते हुए।
दोपहर की थोड़ी सी सब्जी में तड़का लगाते हुए।
दीवारों की सीलन तस्वीरों से छुपाते हुए।
बचे हुए खाने से अपनी थाली सजाते हुए।
फ़टे हुए कपड़े हों।
टूटा हुआ बटन हो।
 पुराना अचार हो।
सीलन लगे बिस्किट,
चाहे पापड़ हों।
डिब्बे मे पुरानी दाल हो।
गला हुआ फल हो।
मुरझाई हुई सब्जी हो।
या फिर
तकलीफ़ देता " रिश्ता "
वो सहेजती हैं।
संभालती हैं।
ढकती हैं।
बाँधती हैं।
उम्मीद के आख़िरी छोर तक...
इसलिए ,
 आप अहमियत रखिये!
वो जिस दिन मुँह मोड़ेंगी
तुम ढूंढ नहीं पाओगे...।

मकान को घर बनाने वाली रिक्तता उनसे पूछो जिन घर मे नारी नहीं वो घर नहीं मकान कहे जाते हैं।

सभी नारियों के सम्मान में नतमस्तक

हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ....

हिन्दी दिवस के सुअवसर पर मेरी कविता "हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ" के कुछ अंश संक्षिप्त रूप में आपकी सेवा में प्रेषित है। आपसे सविनय निवेदन कि इस वैज्ञानिक भाषा को समृद्ध बनाने हेतु अपना यथा प्रयास करें। 


संस्कृत सुता,  देवनागरी की रचना
है गौरवमयी इतिहास मेरा। 
नन्दन,निराला,भारतेन्दु की जननी
है देववाणी में वास मेरा।।
आदि का रासो, भक्ति मध्य की।
मीरा की प्रीत में सिमटी हूँ।।
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ ।
हाँ!  मैं ही तो हिन्दी हूँ। 

भारतेन्दु, द्विवेदी कई युग मेरे
जागरण, क्रान्ति का शंखनाद मैं। 
शंकर, निराला,महादेवी,सुमित्रा के
सौन्दर्य चेतना का अनुराग मैं।। 
प्रयोग, प्रगति, छाया, स्वच्छन्दता
सभी युगों को सींचती हूँ। 
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ। 
हाँ !मैं ही तो हिन्दी हूँ। 

अर्वाचीन का वसन लपेटे
हिन्द की पहचान हूँ। 
राष्ट्रभाषा तो मात्र पद सम
मैं खुद में एक जहान हूँ। 
चिन्तन,ओजस्वी नये शिल्पियों संग
अपना पथ मैं गढ़ती हूँ। 
हाँ!  मैं ही तो हिन्दी हूँ। 
हाँ! मैं ही तो हिन्दी हूँ

 
 
 बलवन्त नेगी
रा0प्रा0वि0 गर्जिया,  चौखुटिया
अल्मोड़ा।

गुरुवार, 25 जून 2020

बहुत कुछ गंवा दिया....

माँ बनाती थी रोटी 
पहली गाय की , 
आखरी कुत्ते की
एक बामणी दादी की 
एक मेथरानी बाई की
हर सुबह सांड आ जाता था
दरवाज़े पर गुड़ की डली के लिए
कबूतर का चुग्गा 
किड़ियो का आटा
ग्यारस, अमावस, पूर्णिमा का सीधा
डाकौत का तेल 
काली कुतिया के ब्याने पर तेल गुड़ का सीरा

सब कुछ निकल आता था
उस घर से , 
जिसमें विलासिता के नाम पर एक टेबल पंखा था...

आज सामानों  से भरे घर में 
कुछ भी नहीं निकलता 
सिवाय लड़ने की कर्कश आवाजों के.......
....
मकान चाहे कच्चे थे
लेकिन रिश्ते सारे सच्चे थे...
चारपाई पर बैठते थे
पास पास रहते थे...
सोफे और डबल बेड आ गए
दूरियां हमारी बढा गए....
छतों पर अब न सोते हैं
बात बतंगड अब न होते हैं..
आंगन में वृक्ष थे
सांझे सुख दुख थे...
दरवाजा खुला रहता था
राही भी आ बैठता था...
कौवे भी कांवते थे
मेहमान आते जाते थे...
इक साइकिल ही पास था
फिर भी मेल जोल था...
रिश्ते निभाते थे
रूठते-मनाते थे...
पैसा चाहे कम था
माथे पे ना गम था...
मकान चाहे कच्चे थे
रिश्ते सारे सच्चे थे...
अब शायद कुछ पा लिया है
पर लगता है कि बहुत कुछ गंवा दिया